
CG NEWS:गार्डन के गोठ (2) चत्तन चाचा को मिल गया चुनाव का मुद्दा…. !
CG NEWS:छत्तीसगढ़ के दूसरे बड़े शहर…. न्यायधानी बिलासपुर के एक गार्डन का सीन है….। सुबह – सुबह सूरज निकला है… धीरे – धीरे ऊपर चढ़ रहा है…। जिसकी हल्की गरमाहट का अहसास होते ही कुछ बुजुर्ग गार्डन की बेंच पर तशरीफ़ रखते हुए मार्निंग वॉक पर अल्पविराम लगाकर गपशप का सिलसिला शुरू कर रहे हैं…। जिस तरह मौसम की ठंडक कम हुई है और पारा चढ़ने लगा है, उसी तरह चुनावी मौसम का भी पारा चढ़ने लगा है। लिहाज़ा गपशप पर भी इसका असर दिखाई दे रहा है…।
रोज की तरह चत्तन चाचा ने बात शुरू की – चुनावी माहौल अभी ज़रा सुस्त दिख रहा है…। लोग ख़ामोश हैं … और समझना मुश्किल है कि क्या होने वाला है…। बड़ी कशमकश दिखाई दे रही है। मेयर के उम्मीदवार सामने हैं और घोषणा पत्र भी सामने आ गया है। लेकिन लाख टके का सवाल है कि लोग आख़िर किस मुद्दे को सामने रखकर फैसला देने वाले हैं…?
लल्लन काका आज कुछ अलग ही तेवर के साथ बैठे थे। उन्होने शुरू में ही लपककर गेंद अपने पाले में कर ली। चत्तन चाचा के सवाल का कोई जवाब तो नहीं दिया । अलबत्ता बहस को एक नए रास्ते की तरफ़ मोड़ दिया ..। बोले – शहर के एक बड़े अख़बार ने जो सवाल उठाया है, चुनाव के समय तो कम से कम इसका जवाब खोजना चाहिए…। लल्लन काका का अंदाज़ ही कुछ ऐसा था कि सभी बुजुर्गों की बूढ़ी नज़रें उनकी ओर मुड़ गईं… जैसे सभी यह जान लेना चाह रहे हों कि अखबार ने आख़िर कौन सा सवाल उठाया है…। गार्डन के गोठ की शुरूआत आज बहुत ही संज़ीदा माहौल में हो रही थी । लल्लन काका बोले – अखबार ने मेयर के एक उम्मीदवार से बढ़िया सवाल किया है । न जात पूछी… न पात पूछी.. और ना ही उनके पिछले रिकॉर्ड के बारे में पूछा…। यह भी नहीं पूछा कि बिलासपुर नगर निगम की सियासत में उनका कब से नाता है…। सीधा सा सवाल था तरक्की की रफ़्तार में अपना शहर क्यों पिछड़ गया … ? इस दौड़ में राजधानी से काफ़ी पीछे क्यों रह गया… ?
आप लोगों को याद हैं ना शायर की लाइनें
तू इधर -उधर की न बात कर, ये बता कि काफ़िला क्यूं लुटा,
मुझे रहजनों से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है….
( बुजुर्गों ने जेब से हाथ निकाल कर तालियां बजाईं )
लल्लन काका बोलते रहे – बिल्कुल इसी तरह प्वाइंटेड सवाल है कि अब जो मेयर बनेगा वह इस शहर की तरक्की के साथ नत्थी हो गए इस धब्बे को कैसे मिटाएगा…. ? यही सौ टके का सवाल है, जिसे सभी उम्मीदवारों से पूछना चाहिए..। अब क्या कोई दूसरे शहर से आकर हमें यह याद दिलाएगा कि अविभाजित मध्यप्रदेश में हमारी गिनती किस जगह पर होती थी। पचीस साल पहले छत्तीसगढ़ बना तब हम कहां थे…. और अब कहां पर खड़े हैं…? इस शहर के लोगों ने अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ी है..। शहर की जीवनदायिनी अरपा को अंतःसलिला कहा जाता है। जैसे यह नदी भीतर – भीतर बहती ऱहती है, उसी तरह यहां के लोगों का बहाव भी भीतर – भीतर चलता रहता है। जो कभी – कभी बाढ़ की शक्ल में बाहर आता है और जोन आंदोलन जैसी तस्वीर सबके सामने आती है।
अब बारी सोनू दद्दा की थी…। बोल पड़े- चुनाव के समय आपने दुखती रग पर हाथ रख दिया ..। यह सवाल तो उन तमाम लोगों के माथे पर ठोंका जा सकता है, जो अब तक इस शहर की रहनुमाई करते रहे हैं..। जो ख़ुद चुनाव लड़ते और लड़वाते रहे हैं। अगर यह सवाल अपनी जगह पर काबिज़ है कि अपना शहर क्यों पिछड़ गया, तब तो जवाब पाने के लिए यह सही वक़्त हो सकता है। यह शहर तो धीमी रफ़्तार का भी शिकार रहा है। आज दुनिया कितनी तेजी से आगे बढ़ रही है। ऐसे में हर एक चीज दूसरे दिन ही पुरानी हो जाती है। लेकिन हमारे नुमाइंदे कछुआ को आदर्श मानकर आगे बढ़ रहे हैं। हमारे ओवरब्रिज जब तक बनकर तैयार हो पाते हैं , तब तक उसी जगह पर फ़्लाईओवर की ज़रूरत महसूस होने लगती है। फिर उसके लिए जूझते हैं। तिफरा ओवरब्रिज इसका नायाब नमूना है। अब तो शहर में ट्रेफिक इतना अधिक बढ़ गया है कि कई जगह फ्लाईओवर की जरूरत है ।
रिटायर अफ़सर लालाजी बहुत देर से सबकी सुन रहे थे । अब बोले – अरपा नदी पर बारहों महीने पानी रहे, इसके लिए बड़े -बड़े प्रोजेक्ट की झांकी तो काफ़ी पहले से दिखाई जा रही है। सालों साल इसका डीपीआई ही नहीं बन पाया था । धीमे – धीमे ही सही दो बैराज तो बन रहे हैं और दो नए पुल भी मिल रहे हैं। सवाल इस बात का नहीं है कि कब से इस पर बात हो रही थी … और इस पर काम कब हुआ …। बल्कि सवाल तो यह है कि हम ऐसी कितनी झांकियां देखने के आदी हो चुके हैं, जो हकीकत की जमीन पर उतर ही नहीं पातीं…। यह सही है कि शहर को नई पहचान देने वाले बड़े – बड़े कामों को लेकर नगर निगम जैसी संस्था से बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती। महापौर और पार्षदों को सफाई, बिजली, पानी, सड़क जैसी गली- मोहल्ले की छोटी -छोटी जरूरतों के लिए ही याद किया जाता है। लेकिन जनता के बीच से चुने हुए नुमाइंदों की यह फौज अगर बीस – पचास साल बाद के शहर के हिसाब से बड़े प्रोजेक्ट पर भी फोकस करे और क्लीयर विज़न – मजबूत इच्छाशक्ति के साथ दबाव बनाए तो तस्वीर बदल भी सकती है। तब हमको आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकेगा और यह धब्बा मिटा सकेंगे कि हम दूसरे शहर से क्यों पिछड़ते जा रहे हैं….।
उधर सूरज आसमान पर चढ़ने लगा था । इधर लम्बी बात करते हुए लालाजी अब बहस को शहर की सियासत की तरफ मोड़ना चाह रहे थे । शायद वे सियासत की डोर और इसे थामने वाले हाथों के बारे में भी कुछ लम्बा बोलते । लेकिन सूरज की तपिश और बुजुर्गों के चेहरे को देखकर उन्होंने भी अपनी बात को समेटने के लिए एक कविता का सहारा लिया । बोले – जाने माने कवि सुदामा पांडेय “धूमिल” ने लिखा है—
लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो,
उस घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है’
चत्तन चाचा ने बहस के आख़िरी मुकाम पर माइक फिर से अपने हाथ में लिया … और बोले- बात घूम फिरकर फिर से उसी सवाल पर आ गई कि तरक्की की रफ़्तार में हम पीछे क्यों हो रहे हैं..? अख़बार ने यह सवाल उठाकर एक तरह से चुनाव का बड़ा मुद्दा दे दिया है। लोकतंत्र में चुनाव एक तरह से सवाल पूछने का भी अवसर होता है और यह समझने का भी अवसर होता है कि आम लोगों के सवालों की कसौटी पर कौन खरा साबित हो रहा है..। वोटर ख़ामोश जरूर है। लेकिन आंख – कान खुले हुए हैं । लोग सब देख – सुन रहे हैं । समझ बूझ के साथ जो भी फैसला करेंगे, वह सही होगा ।
इतना बोलते -बोलते चत्तन चाचा ने एक नज़र घुमाकर चारों तरफ देखा और बोले – भई घड़ी को भी देखो…। चुनाव में तो अभी वक्त है। लेकिन अभी तो घर जाने का वक्त है…। बाक़ी बात कल कर लेंगे…। अब चलें…।