
“65 वर्षीय दृष्टिबाधित आरोपी को सुप्रीम कोर्ट से मिली जमानत, न्याय प्रणाली की स्थिति पर जजों ने जताई चिंता”
जस्टिस अभय एस. ओक और जस्टिस उज्जल भूइयां की पीठ ने इस मामले की सुनवाई करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय अपराधों में भी आरोपियों को जमानत के लिए सुप्रीम कोर्ट तक आना पड़ता है। कोर्ट ने कहा कि यह एक गंभीर चिंता का विषय है जो पूरे न्यायिक तंत्र पर सवाल उठाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक महत्वपूर्ण निर्णय में 65 वर्षीय दृष्टिबाधित आरोपी को जमानत दे दी, जो पिछले सात महीनों से न्यायिक हिरासत में था। यह मामला भारतीय न्याय प्रणाली की उन खामियों को उजागर करता है, जहां छोटे-मोटे और मजिस्ट्रेट स्तर के मामलों में भी अभियुक्तों को सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ता है।
जस्टिस अभय एस. ओक और जस्टिस उज्जल भूइयां की पीठ ने इस मामले की सुनवाई करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय अपराधों में भी आरोपियों को जमानत के लिए सुप्रीम कोर्ट तक आना पड़ता है। कोर्ट ने कहा कि यह एक गंभीर चिंता का विषय है जो पूरे न्यायिक तंत्र पर सवाल उठाता है।
आरोपी व्यक्ति भारतीय दंड संहिता की धाराओं 420 (धोखाधड़ी), 467 (महत्वपूर्ण दस्तावेजों की जालसाज़ी), 468 (धोखाधड़ी के उद्देश्य से जालसाज़ी), 471 (जाली दस्तावेज को असली के रूप में इस्तेमाल करना) और 120B (आपराधिक साज़िश) के तहत आरोपी है।
बावजूद इसके, यह केस मजिस्ट्रेट की अदालत के अधिकार क्षेत्र में आता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि शुरुआती स्तर पर ही जमानत मिलनी चाहिए थी।
65 वर्षीय यह आरोपी 50% दृष्टिबाधित है और सात महीने से अधिक समय से जेल में बंद था। कोर्ट ने अपने आदेश में स्पष्ट किया कि आरोपी को एक सप्ताह के भीतर ट्रायल कोर्ट में पेश होकर नियमित उपस्थिति और मुकदमे में सहयोग जैसे शर्तों के साथ जमानत दी जाए।
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी कोई नई नहीं है। पिछले वर्ष भी जस्टिस ओक की पीठ ने एक ऐसे ही मामले में आरोपी को जमानत दी थी, जहां आरोपी एक वर्ष से अधिक समय से जेल में था और अभी तक आरोप तय नहीं हुए थे। तब भी कोर्ट ने मौखिक टिप्पणी करते हुए कहा था कि अब सामान्य मामलों में भी लोगों को जमानत के लिए सुप्रीम कोर्ट तक आना पड़ता है, जो बेहद चिंताजनक स्थिति है।