CG NEWS:सरकंडा में उस रात – बतंगड़ नहीं बनती मामूली सी बात !…. अगर “ईगो” शांत करने की वह पहल कामयाब हो जाती
CG NEWS: ( रुद्र अवस्थी ) । बिलासपुर के सरकंडा में हुई चर्चित घटना को लेकर यह कोई ब्रेकिंग – ख़ुलासा या रहस्योद्घाटन नहीं है….। लेकिन एक पहलू या देखने का नज़रिया ज़रूर हो सकता है कि उस रात एक मामूली सी बात पर शुरू हुआ बवाल जहां का तहां थम सकता था…. और इतनी दूर तक नहीं जाता, अगर “ईगो” शांत कर दिया जाता । जिसके लिए मिल बैठकर बातचीत जरूरी है और सामाजिक -राजनीतिक प्रक्रिया से यह आसन हो सकता है। खबर मिल रही है कि इस तरह की पहल भी हुई थी। लेकिन तब तक टीआई को एफआईआर दर्ज करने का आर्डर मिल चुका था और पूरा मामला कहीं से कहीं पहुंच गया। पूरे मामले को इस नजरिए से देखें तो यह सवाल भी आता है कि बिलासपुर में जिस तरह का निज़ाम चल रहा है, उसमें सामाजिक – राजनैतिक हिस्सेदारी कहां है…?
इन दिनों पूरे प्रदेश में चर्चित सरकंडा की घटना में अंग्रेजी के लफ्ज़ “ईगो” का ज़िक्र भी मोटे अक्षरों में आया है। कथित घटनाक्रम को सिलसिलेवार देखे तो इसमें ईगो की एंट्री शायद उसी समय ही हो गई थी जब इतवार की देर रात रेलवे स्टेशन से घर जा रहे नायब तहसीलदार ( कार्यपालिक मजिस्ट्रेट ) पुष्पराज मिश्रा को पुलिस ने रोका था। पुलिस का जो अंदाज था, उसकी उम्मीद नायब तहसीलदार को नहीं थी। फिर जवाब में उनकी ओर से जो कुछ कहा गया उसकी उम्मीद पुलिस को नहीं थी। जाहिर सी बात है कि ऐसे में बात का बतंगड़ बनना ही था और गश्त कर रहे पुलिस जवानों ने इसकी खबर ऊपर तक कर दी। रात के घने अंधेरे में शायद किसी को नहीं मालूम रहा होगा कि मामूली सी बात पर शुरू हुआ मसला कितनी दूर तक जा सकता है । कथित घटनाक्रम में आगे बढ़े तो पुलिस नायब तहसीलदार को थाने ले गई। वहां उनके साथ जिस तरह धक्का मुक्की , बदसलूकी की गई, वह सब वीडियो में भी सामने आया है। बताया गया है कि इस दौरान थाने में पुलिस ने इसी प्रदेश में पदस्थ कार्यपालिक मजिस्ट्रेट के सामने उनके पिता को जमीन पर बिठा दिया । समझना कठिन नहीं है कि जो शख्स बिना किसी गलती के थाने बुला लिया गया हो और उसके सामने बुजुर्ग पिता को जमीन पर बिठाया जाए तो चाहे वह किसी भी बड़ी पोस्ट पर ना हो तो भी उसे गहरा धक्का लगेगा । ज़ाहिर सी बात है अगर कोई सख्त पुलिस के ऐसे रवैये का प्रतिरोध करेगा तो उसके लहजे में नरमी नहीं होगी ।घटनाक्रम से जुड़ी कड़ियों को आपस में जोड़ने से लगता है कि इस तरह दोनों तरफ से ईगो पर चोट लगती गई और मामला बढ़ता गया ।
ईगो ऐसा शब्द है जिसका कोई रंग, रूप, आकार ,पैमाना नहीं होता। मनोविज्ञान से जुड़े लोग ज्यादा अच्छे ढंग से बता सकते हैं कि यह किस तरह के हालात में पैदा होता है….. बढ़ता है और उसे शांत कैसे किया जा सकता है । इस बारे में शायद सभी की एक राय होगी कि किसी भी मामले से जुड़े सभी पक्ष आपस में मिल बैठकर एक दूसरे की बातों को समझते हुए ईगो मिटा सकते हैं । सामान्य तौर पर विवादों को सुलझाने में यह नुस्खा आजमाया जाता रहा है। इस मामले में तो एक तरफ पुलिस थी दूसरी तरफ एग्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट थे । उनके सामने से पूरा सीन चल रहा था। कब-कब, कहां-कहां कैसे – किसका ईगो कितना चोटिल हो रहा है । सब कुछ अपनी नज़रों से देख रहे थे। शायद यदि वे खुद पार्टी नहीं होते तो मसले की जड़ को समझकर अंग्रेजी के सॉरी शब्द को बीच में लाकर ईगो को थाने के बाहर के मौसम की तरह ठंडा करके चंद मिनटों में ही सब कुछ सुलझा लेते। लेकिन बदकिस्मती से ऐसा नहीं हो सका। खबर मिली है कि मामला जब काफ़ी गरम था, उस समय इस तरह एक पहल भी हुई थी। लेकिन पता चला है कि इस दौरान ही एफआईआर करने का ऑर्डर टीआई को मिल चुका था और उन्होंने संवाद का रास्ता बंद कर कागज़ – कलम उठा लिया। लिहाजा यह पहल कदमी अपनी जगह पर ही रुक गई।
इसके बाद प्रशासनिक अधिकारियों का संगठन भी सामने आया। गुरुवार को तहसीलदारों ने एक दिन की छुट्टी लेकर अपना विरोध प्रदर्शन किया। जिसकी चर्चा पूरे प्रदेश में हो रही है । जब सरकार के सिस्टम का एक हिस्सा दूसरे हिस्से के रवैये को लेकर आमने-सामने नजर आता है तो सुशासन भी गोल घेरे में दिखने लग जाता है।छत्तीसगढ़ के कुछ जिलों में पिछले कुछ महीनो में हुए बवाल और बिलासपुर की इस घटना में एक फर्क और है कि बिलासपुर के मामले में राजनीतिक बयानबाजी को कहीं भी जगह नहीं मिली।ऐसे मामलों में सियासत होनी भी नहीं चाहिए ।बिलासपुर की घटना की तासीर ही कुछ ऐसी है कि इसमें विपक्षी दल का कनेक्शन नहीं ढूंढा जा सकता। विपक्ष के लोग भी शांत बैठकर पूरे घटनाक्रम को देख रहे हैं। दूसरी तरफ काफिले के साथ सायरन बजाती गाड़ियों में फर्राटे भर रहे नुमाइंदों का भी रुख इस तरह नजर नहीं आता कि उन्हें इस घटना से कोई असर पड़ा हो। ऐसी घटना से शहर की पहचान किस तरह बन रही है इस बात से भी उनका कोई रिश्ता जुड़ता हुआ नहीं दिखाई दे रहा है । लेकिन बिलासपुर के ही सामाजिक – राजनीतिक क्षेत्र से जुड़े लोगों से बात करें तो उनसे भी यह सुनने को मिल जाएगा कि विवाद अगर इस तरह का हो, जिसमें बात का बतंगड़ बन जाए तो उसे सिर्फ मिल बैठकर बातचीत के जरिए ही सुलझाया जा सकता है । सामाजिक – राजनीतिक लोगों की हिस्सेदारी से यह काम आसान हो सकता है। लेकिन यहां तो निजाम को चलाने का जो तौर तरीका अख्तियार किया गया है, उसमें फिलहाल शहर के सामाजिक राजनीतिक लोग ख़ुद अपनी भूमिका तलाश रहे हैं। अपने आसपास ही ऐसा उदाहरण खोजना पड़ेगा जिसमें शहर के जानकारों – विशेषज्ञों से राय मशविरा करने की ज़रूरत महसूस की गई हो । ऐसे में सरकंडा में मामूली सी बात बखेड़ा बनकर खड़ी हो जाए तो इस शहर की अपनी पहचान की फ़िकर करने वालों को तकलीफ़ होगी ही….।