
वाह….! आपसी संवाद से बन गई बात….और सरकंडा विवाद का पटाक्षेप
( गिरिजेय ) इसे इत्तेफाक कहें…… या कुछ और नाम दें, बड़े प्रशासलिक पदों पर रह चुके छत्तीसगढ़ के वित्त मंत्री ओपी चौधरी जिस दिन छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में सुशासन पर क्षेत्रीय सम्मेलन का उद्घाटन कर रहे थे, उसी समय प्रदेश के करीब 5 सैकड़ा तहसीलदार एक दिन की छुट्टी लेकर पुलिसिया रवैये के खिलाफ ज्ञापन सौंप रहे थे। और जिस दिन केंद्रीय मंत्री डॉ. जितेन्द्र सिंह सुशासन के इस क्षेत्रीय सम्मेलन का समापन कर रहे थे, उसी दिन आपसी संवाद से उस मामले का सुखद पटाक्षेप हो गया । जिसकी चर्चा पूरे प्रदेश में थी। सरकंडा में शुरू हुआ यह विवाद आमने- सामने की बातचीत में आसानी से सुलझ गया और दोनों पक्षों को यह समझ में आ गया कि चूक कहा पर हो रही थी।
सभी जानते हैं कि पिछले इतवार की रात सरकंडा में क्या हुआ था। गश्त कर रहे पुलिस के जवानों ने देर रात ट्रेन से बिलासपुर आकर रेल्वे स्टेशन से घर लौट रहे तहसीलदार को रोका ….। बात बिगड़ती चली गई और धीरे-धीरे इसका दायरा बढ़ता गया। जाहिर सी बात है की सरकंडा में कोई संगीन मामला नहीं हुआ था। जो कुछ हुआ उसमें कोई बड़ा नुकसान भी नहीं हुआ। बिगड़ी बात से लगी चोट का असर दिल पर हुआ और कड़क ठंड के मौसम में भी ईगो गरमाता गया बातों का जमा खर्च ही था, जो मामूली सी बात को बहुत दूर तक ले गया। सड़क से उठकर आंदोलन तक पहुंच गए इस विवाद के पीछे आखिर जिम्मेदार कौन है…. इसका पता लगाने के लिए जांच भी शुरू हो गई और थानेदार को लाइन अटैच भी कर दिया गया। प्रशासनिक अधिकारियों का संगठन इस तरह की कार्यवाही को पर्याप्त नहीं मान रहा था। लिहाजा सिस्टम के दो हिस्से आमने-सामने नजर आ रहे थे। आगे और भी एक्शन हो सकते थे और नए-नए मोर्चे खुल सकते थे।
लेकिन यह बात भी सामने आई कि सीधे संवाद के जरिए भी इस विवाद का समाधान हो सकता है। अंग्रेजी के शब्द कम्युनिकेशन यानी संवाद का पुराना सिद्धांत है कि फर्स्ट कम्युनिकेशन यानी आमने-सामने बैठकर कोई भी बातचीत सार्थक होती है। यही वजह है कि पुराने दौर में गोलमेज कॉन्फ्रेंस होती रही। जिसमें बातचीत करने वाले सभी लोगों के चेहरे एक दूसरे के आमने-सामने होते हैं और सीधे संवाद में कोई भी बात आसानी से की जा सकती है । आपसी गिला शिकवा हो…… किसी तरह का भ्रम हो या ईगो ही क्यों ना हो….. अगर आमने-सामने संवाद होगा तो सभी पक्षों को सारे सवालों के जवाब मिल जाते हैं। फिर किसी कन्फ्यूजन की गुंजाइश ही कहां रहती है। करीब करीब यही फार्मूला सरकंडा के विवाद पर भी आजमाया गया।
आला अफसरों ने मामले से जुड़े दोनों पक्ष को बिठाकर बात की। जड़ तक पहुंचने की कोशिश की। आसानी से यह समझ आया कि बात का बतंगड़ कैसे बना। फिर आपस की बात में ही एक दूसरे की गलतियों को समझने का मौका मिला। जिससे एक दूसरे के प्रति कड़वाहट भी घुल गई । जो बात बिगड़ी थी वह बात सीधे संवाद से बन गई। हालांकि शुरुआत में ही ऐसा माहौल बनता तो मामला इतनी दूर तक नहीं जाता ।लेकिन जब समय आया तो एक आसान फार्मूले से सारा कुछ समाधान भी निकल आया । जो विवाद कई दिनों से सुर्खियों में छाया रहा, उसका सुखद पटाक्षेप एक अच्छा संकेत माना जा सकता है। चूंकी इस मामले में जो पक्ष सामने आ रहे थे ,उनकी जिम्मेदारी प्रशासनिक व्यवस्था में काफी अहम है। तहसीलदार और थानेदार तमाम लोगों के बीच इस तरह के विवादों को बातचीत से सुलझाते रहे हैं और अगर आगे भी ऐसे मौके आए तो जो मामले आपसी बातचीत से सुलझाए जा सकते हैं, उनका रास्ता भी निकल सकता है।
इस नज़रिए से देखें तो सरकंडा में उपजे विवाद ने सिस्टम को एक नसीहत भी दी है कि कामकाज के अपने -अपने तरीके पर भी नज़र डालने की ज़रूरत है। जो मामला संगीन नहीं है, फ़िर भी उसका दायरा बढ़ने की गुंज़ाइश दिखाई दे रही तो कलम – कागज़ से हटकर आपसी संवाद का नुस्खा भी आज़मा लिया जाना चाहिए। बिलासपुर की ज़मीन ने पहले भी ऐसे नुस्खे कामयाब होते देखे हैं । जिसके चलते यहां विवादों को फलने -फूलने के लिए माकूल आबोहवा नहीं मिल पाती और इस कस्बाई शहर का मिज़ाज़ ऐसा है कि आपसी संवाद का कोई मौक़ा खाली नहीं जाता। हर एक पार्टी – हर एक समाज के लोग एक बुलावे पर एक मंच पर जमा होते हैं बड़ी से बड़ी मुहिम को अंज़ाम तक पहुंचाते रहे हैं।