कांग्रेस के हाथ लग गया छत्तीसगढ़ में चुनाव जीतने का फार्मूला…..?

Chief Editor
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1cng_index(गिरिजेय)।छत्तीसगढ़ बनने के बाद अब तक विधानसभा के लिए 3 चुनाव हो चुके हैं……..। कांग्रेस सभी चुनावों में हारती रही है……।  कोई यह सवाल करे कि कांग्रेस अपने पुराने गढ़ में लगातार चुनाव क्यों हारती रही है….? तो ज्यादातर लोग जवाब यही देंगे कि कांग्रेस एकजुट नहीं है…. नीचे से ऊपर तक बिखरी हुई है…. खींचतान में  कमी नहीं है…..। लगता है कुछ ऐसा ही जवाब कांग्रेस हाईकमान तक भी पहुंच गया है । जिसका इशारा हाल ही में कांग्रेस की ओर से अगले चुनाव के मद्देनजर बनाई गई तमाम कमेटियों से भी मिल रहा है। 

bhupesh-इन कमेटियों में शामिल चेहरों को देखकर कहा जा सकता है कि पार्टी ने तीन बार हारने के बाद अब जाकर अपने सामने खड़े हो रहे असली सवाल का – असली जवाब ढूंढ़ निकाला है और इसीलिए किसी एक नेता को कमान सौंपने की बजाय  चुन –चुन कर अपने सभी दिग्गजों को उनकी हैसियत – तबीयत – लियाकत के माफिक जिम्मेदारी सौंप दी है। इस उम्मीद के साथ कि जीतेंगे ….. और जीतेंगे तो शाबासी सभी के हिस्से में आएगी और अगर फिर भी हारे तो ठीकरा किसी एक पर नहीं बल्कि सभी दिग्गजों के सिर पर फूटेगा…..। इस नजरिए से अगर छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की चुनावी तैयारियों के आगाज को देखें तो लगता है कि प्रदेश के विधानसभा चुनाव जीतने के लिए सूत्र या फार्मूला कांग्रेस के हाथ लग गया है ।और पार्टी ने अपने चुनाव निशान   “ पंजा” की पाँच अँगुलियों  को एक नुस्खे के तौर पर मुट्ठी में तब्दील करने की कोशिश की है। लेकिन बरसों बाद मिला यह नुस्खा कांग्रेस के लिए सही में कितना कारगर साबित होगा यह जानने के लिए आने वाले वक्त का इँतजार करना ही बेहतर होगा….।

ts_singhdeo_indexपिछले कई बरस से “ इम्तहान ” की तैयारी का वक्त हो या “ एक्जामिनेशन हॉल ” में पर्चा हल करने का समय हो…. कांग्रेसियों के सामने यही सवाल सबसे कठिन रहा है कि उनकी पार्टी छत्तीसगढ़ में लगातार क्यों हार रही है..? जबकि छत्तीसगढ़ का यह इलाका अविभाजित मध्यप्रदेश के जमाने से कांग्रेस का मजबूत गढ़ रहा है। यहां के आदिवासी-अनुसूचित जाति- पिछड़ा वर्ग से लेकर सामान्य सभी तबके के  लोगों को कांग्रेस पर ही भरोसा रहा है। लोगों का भरोसा इतना मजबूत रहा है कि 1977 के चुनाव में जब सब दूर कांग्रेस का सफाया हो गया था, तब भी छत्तीसगढ़ की सीटों से बड़ी तादात में कांग्रेस के एमएलए चुनकर भोपाल गए थे। मध्यप्रदेश कांग्रेस में छत्तीसगढ़िया नेताओँ का हमेशा दबदबा रहा। यहां के नेता सूबे में मुख्यमंत्री और मंत्री भी बनते रहे और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की जिम्मेदारी भी छत्तीसगढ़ के नेताओँ को मिलती रही। कांग्रेस में केन्द्र की राजनीति हो या प्रदेश की राजनीति हो, छत्तीसगढ़ के नेताओँ की बखत हमेशा से रही है। खेमेबाजी और एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ मे जो खेल चलता है, उससे तो कांग्रेस की राजनीति का मैदान कभी खाली नहीं रहा……। बल्कि लोग दिलचस्पी के साथ इसमें अपना भी दाँव लगाकर इस खेल को हवा देते रहे । लेकिन कभी इस खेल को इतने ऊपर तक नहीं चलने दिया गया कि कांग्रेस के ही “ गोल-पोस्ट ” में गोल पड़ने की नौबत आ जाए। लिहाजा  छत्तीसगढ़ में पार्टी के लिए सब कुछ ठीक-ठीक चलता रहा।

mahantलेकिन छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद हालात कुछ ऐसे बनते चले गए कि पुराना “गढ़” कांग्रेस के हाथ से निकल गया। राज्य बनने के बाद पहला चुनाव 2003 में हुआ । तब प्रदेश में अजीत जोगी की अगुवाई में कांग्रेस की ही  सरकार थी। इस चुनाव के समय मिली पराजय के साथ जो सिलसिला चला , वह 2008 और 2013 में भी जारी रहा । इस बीच हुए लोकसभा के चुनावों में भी कांग्रेस को हार का ही सामना करना पड़ा। ऐसा नहीं है कि मुद्दे नहीं थे। प्रदेश में सरकार चला रही बीजेपी के खिलाफ कई मुद्दे चर्चा में रहे । लेकिन पार्टी उसे भुनाने में कामयाब नहीं हो सकी। यह सवाल हमेशा जवाब का इंतजार करता रहा कि आखिर ऐसा क्या है कि जीत हर बार कांग्रेस के हाथ से छिटक जाती है….? हालांकि जवाब के रूप में यह बात “ कॉमन ” भी रही कि एकजुटता की कमी और खींचतान ही इसकी एक बड़ी वजह है। जिसके चलते छत्तीसगढ़ के लोगों में कांग्रेस के प्रति भरोसा कायम नहीं हो पा रहा है। सियासी हल्कों में माना जाता रहा है कि कांग्रेस में कमान किसी एक के हाथ सौंपने से दूसरे – तीसरे – चौथे हाथों में खुजली का ऐसा दौर चलता रहा कि उसमें पूरी की पूरी पार्टी ही रगड़ा जाती..।

ravindra_choubeyshaileshलेकिन लगता है कि पिछले तजुर्बे से सबक लेकर इस दफा कांग्रेस  कुछ नया करने जा रही है।वैसे पिछले कुछ समय से पिछले चुनावों के मुकाबले  कांग्रेस की तस्वीर कुछ अलग ही है। एक तो पार्टी में अब अजीत जोगी नहीं हैं और उनके धुर विरोधी माने जाने वाले भूपेश बघेल पीसीसी के अध्यक्ष हैँ।पी.एल. पुनिया प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी हैं। इस पर और नयापन लाते हुए पार्टी ने चुनावी तैयारी के दौरान एक नुस्खा इस्तेमाल किया है। जिसके तहत चुनाव की कमान किसी एक हाथ में न देते हुए सामूहिक  नेतृत्व का फार्मूला अख्तियार किया है और प्रदेश में कांग्रेस के तमाम नेताओँ को उनकी काबिलियत के मुताबिक नई जिम्मेदारी सौंपी गई है। जिससे चुनावी लगाम किसी एक हाथ में न होकर कई हाथों में कसी हुई दिखाई दे रही है । हाल ही में चुनाव के लिहाज से जिन नई कमेटियों का एलान किया गया है, उसमें इसकी झलक मिल रही है। एक तो पीसीसी चीफ भूपेश बघेल के साथ दो कार्यकारी अध्यक्ष (1) रामदयाल उइके और (2) डॉ. शिव डहरिया बनाए गए हैं। इसके पीछे अनुसूचित जाति और जन जाति समाज को कांग्रेस से जोड़ने की रणनीति समझ में आती है। उधर पार्टी के मंजे हुए नेता और केन्द्र में मंत्री रह चुके डॉ. चरण दास महंत को चुनाव अभियान समिति का मुखिया बनाया गया है। इसी तरह चुनाव की प्लानिंग और स्ट्रेटेजी कमेटी का प्रमुख पूर्व नेता प्रतिपक्ष रविन्द्र चौबे को बनाया गया है। चुनाव घोषणा समिति के चेयरपर्सन –नेता प्रतिपक्ष टी.एस. सिंहदेव हैं। अनुशासन समिति का जिम्मा वरिष्ठ नेता बोधराम कँवर को सौंपा गया है औऱ मीडिया की कमान शैलेष नितिन त्रिवेदी को सौंपी गई है। अब डॉ. रेणु जोगी की जगह बस्तर के आदिवासी नेता कवासी लखमा विधानसभा में उपनेता बन गए हैं।  इसके अलावा तमाम कमेटियों में रामपुकार सिंह, सत्यनारायण शर्मा, के. के. गुप्ता, मो. अकबर, ताम्रध्वज साहू, धनेश पाटिला,करुणा शुक्ला, धनेन्द्र साहू, राजेन्द्र तिवारी, किरण मयी नायक, मनोज मंडावी, हर्षद मेहता, देवती कर्मा, राजकुमार सिंघानिया, जैसे नामों को शामिल देखकर कयास लगाया जा सकता है कि सभी के तजुर्बे का बेहतर इस्तेमाल करने की पूरी कोशिश कांग्रेस आलाकमान ने की है। जिससे टिकट बंटवारे से लेकर चुनावी रणनीति बनाने और पार्टी को जीत दिलाने में किसी तरह की कसर बाकी न रहे।

कांग्रेस की इस नई तस्वीर को सामने रखकर यह समझा जा सकता है कि पार्टी आलाकमान ने बिखराव – खींचतान –खेमेबाजी- मोनोपली जैसी बीमारियों को दूर कर कांग्रेस का एक नया चेहरा छत्तीसगढ़ के मतदाताओँ के सामने पेश करने की कोशिश की है। लग रहा है, जैसे चुनाव में जीत का फार्मूला कांग्रेस के हाथ लग गया है…..? जिसके भरोसे वह प्रदेश में बीजेपी के साथ दमदारी से मुकाबला कर पाएगी और एक फीसदी से भी कम वोट के फासले को पार कर पाएगी। लेकिन यह फार्मूला कांग्रेस को कामयाबी के मुकाम से कितना नजदीक ला पाएगा…… ? इस सवाल का जवाब इस साल के सेकेन्ड हॉफ में ही मिल पाएगा…..।

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