सत्यप्रकाश पाण्डेय।अज्ञान से बढ़कर कोई अन्धकार नहीं, उसी अँधेरे से निकलने ये बैगा बच्चे रोज शिक्षा के सरकारी मंदिर में सुनहरे भविष्य की तलाश करते हैं। रंग-बिरंगे झोले में ककहरे की किताब, तन पर सरकारी स्कूल का मैला लिबास और नंगे पाँव भविष्य संवारने का सलोना सपना। ये तस्वीर वनांचल के छपरवा [अचानकमार टाइगर रिजर्व] प्राथमिक शाला में शिक्षा की जलती अलख में हवन करने वाले बैगा बच्चों की है। स्कूल की छुट्टी के बाद घर लौटते इन नौनिहालों की मुस्कराहट इनके अभाव, पिछड़ेपन और मूलभूत सुविधाओं से दुरी को छिपा जाती है। तस्वीर को गौर से देखिये, कैमरे के फ्रेम में आये 118 बच्चों में से सिर्फ दो ही बच्चों के पाँव में चप्पल है वो भी उनके बाप-दादा की।
वनांचल में रहने वाले इन बच्चों के परिजन दशकों से सिर्फ सियासी लोगों की बिछाई बिसात पर मोहरे की तरह इस्तेमाल होते आये हैं, आज भी हो रहें हैं। इन्हे विकास की मुख्य धारा से जोड़ने की कोशिशे सियासी मंच पर अक्सर सुनाई पड़ती है मगर तस्वीरों में दिखाई पड़ते सच को छिपा पाना थोड़ा मुश्किल है।