बिलासपुर— बिलासपुर के एक निजी अस्पताल में लोक गायकी का सितारा हमेशा-हमेशा के लिए डूब गया। भरथरी गायिका सुरुजबाई खांडे का निधन हो गया। अभी चंद दिन पहले ही सुरूज बाई ने डबडबाती से आंखों से कहा था कि पूरी जिन्दगी पद्मश्री का इंतजार रहा…लेकिन भाग्य कहें या सरकार की उपेक्षा कि कभी मुझे इस लायक नहीं समझा गया। प्रदेश के मुखिया बिलासपुर पन्द्रह सालों में कई बार आए लेकिन एक बार भी इस लायक नहीं समझा कि आखिर सुरूज बाई किस हालत में है। हां प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने घर आकर मान बढ़ाया। इसके बाद केवल और केवल गुमानामी के दंश ने ही साथ दिया।बिलासपुर और अविभाज्य मध्यप्रदेश की शान लोकगायिकी का अनमोल सितारा सुरूज बाई खाँडे अब हमारे बीच नहीं रही। भरथरी के अन्तर्राष्ट्रीय लोकगायिका ने 69 साल की आयु में अपनों के बीच गुमनामी की जिन्दगी को 18 साल बाद हमेशा हमेशा के लिए छोड़ दिया। सुरुजबाई पिछले कुछ दिनों से बीमार चल रहीं थीं। इसका दौरान सुरूज बाई का कोई संदेश लेने वाला भी नहीं गया।जिस संस्थान को सेवा करते हुए अपने को खर्च कर दिया उसने भी सुधबुध नहीं ली। दम तोड़ने से मात्र तीन दिन पहले ही सुरूज बाई ने कहा था कि एसईसीएल ने मुझे बरबाद कर दिया। यदि एसईसीएल ने प्रयास किया होता तो भरथरी गायिकी जिन्दा रहती और मुझे में सुख मिलता । लेकिन पूरी नौकरी के दौरान मुझे केवल और केवल उपेक्षा का दंश ही झेलना पड़ा।
Watch Video
अविभाज्य मध्यप्रदेश के समय सुरूज बाई की भरधरी लोकगायिकी का डंका विदेशों में भी बजा करता था। सुरूज बाई ने सोवियत रूस समेत दर्जनों देशों के साथ भारत के अधिकांश राज्यों में भरथरी लोकगायिका का झण्डा बुलंद किया। अस्सी-नब्बे के दशक में भरथरी लोक कथा को गाने वाली लोक गायिका सुरुज बाई खांडे ने मरते दम तक भरथरी गायन नहीं छोड़ा। यदि छोड़ा तो तथाकथित खुद को कला पोषक कहने वालों ने। यहां तक कि राज्य बनने के बाद राज्य सरकार ने भी उपेक्षित कर दिया।
देश दुनिया मे मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़ और बिलासपुर को नाम देने वाली सुरूज बाई का गायिकी का अंदाज ही निराला था। बिलासपुर जिले के ग्रामीण व सामान्य परिवार में पैदा हुईं सुरुज बाई खांडे ने महज सात साल की उम्र में गायिका शुरू की। नाना रामसाय धृतलहरे से भरथरी, ढोला-मारू, चंदैनी जैसी लोक कथाओं को सीखना शुरू किया। कुछ समय में सुरुज भरथरी गायकी में पारगंत हो गयी। बुलंद आवाज ने हजारों मंच को जीता।
समय के साथ सुरूज बाई ने साथियों के साथ सुरमोहिनी लोक गायन समिति बनाई। सबसे पहले रतनपुर मेले में गाने का मौका मिला। सुरूज की गायिकी को मध्यप्रदेश आदिवासी लोक कला परिषद ने पहचाना। 1986-87 में सोवियत रूस में भारत महोत्सव का हिस्सा बनने का मौका दिया। सुरूज बाई पढ़ी-लिखी नहीं थी। एसईसीएल ने उन्हें कल्चरल आर्गनाइजर बनाया।
लेकिन सुरुज को एसईसीएल में वह सम्मान हासिल नहीं हुआ जिसकी वह हकदार थीं। लेकिन मनमस्त सुरूज बाई को इसकी परवाही भी नहीं थी। बड़ी लोकगायिका होने के बावजूद एसईसीएल ने जो भी जिम्मेदारी दी…उन्होंने पूरी तरह पालन किया। 2009 में वे एसईसीएल से रिटायर हो गई और इसी के साथ खत्म हो गयी कद्रदानों की लम्बी लाइन। मरने तक सुरूज बाई को पेंशन का सहारा मिला। लेकिन गायिकी की भूख अंत तक खत्म नहीं हुई। कई बार सरकार के दरवाजे पर नाक रगड़ी । लेकिन सारे प्रयास नक्कार खाने में तूती साबित हुए।
सुरूज बाई शहर से लगे ग्राम पंचायत बहतराई में एक मामूली मकान में रहती थीं। आखिरी समय मुफलिसी में गुजरा। इस बीच बेगानों ने नहीं बल्कि अपनो ने धोखा दिया। पास में ही प्रथम अस्पताल में लोकगायिकी की चमकता सितारा हमेशा हमेशा के लिए डबू गया।
मुक्तिधाम में अंतिम संस्कार
सुरूज बाई का अंतिम संस्कार शनिवार दोपहर 3 बजे मुक्तिधाम में किया। देखकर दुख हुआ कि जिसने बिलासपुर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ का नाम देश रूज की विदाई में दुनिया में रोशन किया। उसकी अंतिम विदाई में कोई भी व्हीआईपी नजर नहीं आया। मतलब सुरूज की विदाई भी मुफलिसी में हुई।