सिम्स के बाद यहां पहुंचती है लावारिश लाश…फिर शान से होती है विदाई…कृष्णा कहती हैं सभी ऊपर वाले के संतान

BHASKAR MISHRA
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बिलासपुर—सीजी वाल को एक बार फिर अवसर मिला है कि समाज में इंसानियत की मिसाल कायम करने वाली ऐसी महिला शख्सियत से परिचय कराने का जिसने कभी नहीं पूछा कि मरने वाला या वाली किस जाति या धर्म से है। क्योंकि मरने वाली या वाला किसी जाति या धर्म का नहीं होता है..देखने में आया है कि अंतिम यात्रा में सभी धर्म और जाति के लोग शिरकत करते हैं। महिला शख्सीयत को इस बात की भी परवाह नहीं है लोग उसके बारे मेंं क्या सोचते हैं। उसे तो बस इस बात की परवाह रहती है कि अंतिम यात्रा में जाने वाला या वाली के सम्मान के खिलाफ किसी प्रकार की भूल से भी गुस्ताखी ना हो जाए। जी हां हम बात कर रहे हैं…एक ऐसी ही महिला शख्सीयत की जिसका नाम है कृष्णा देवी यादव।

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                    कृष्णा देवी यादव का घर सिम्स से चंद कदम दूर गोंडपारा में है। कृष्णा देवी पिछले तीस साल से बिना थके लावारिश लाशों को अपने घर से विधि विधान के साथ अंतिम यात्रा पर विदा करती है। जब भी सिम्स से किसी महिला, पुरूष, युवक,युवती, बच्ची या बच्चों की लाश निकलती है..सबसे पहले कृष्णा मां के घर के सामने पहुंचती है। कृष्णा देवी विधि विधान से यथोचित संस्कार के बाद कफन देकर लाश को अंतिम यात्रा के लिए विदा करती है। सिम्स कर्मचारी भी अपनी ड्यूटी समझ लाश को श्मशान घाट पहुंचाने से पहले कृष्णा दाई के घर के सामने उतारते हैं। कभी कभी तो एक दिन में लाशों की संख्या और विदाई कार्यक्रम की दो तीन रस्में हो जाती है। बावजूद इसके कृष्णा देवी तल्लीन होकर अपने दायित्वों का निर्वहन कर शव को अंतिम यात्रा के लिए विदा करती है।

                    जानकारी हो कि अस्पतालों से रोज कोई ना कोई लावरिश लाश निकलते ही हैं। अस्पताल के कर्मचारी सरकारी दायित्वों को पूरा करने के बाद शव को श्मशान घाट ठिकाने लगाने भेज देते हेैं। चूंकि कर्मचारियों को जानकारी नहीं होती कि लाश का क्या धर्म है..इसलिए सभी लाशों को बिना परंपरा निर्वहन करते हुए मुक्तिधाम में दफन कर दिया जाता है। फिर विधि विधान का सवाल ही नहीं उठता।

लावारिश लाश की विधि विधान से विदाई

                   लेकिन आज तक सिम्स से कोई भी लावारिश लाश बिना परम्परा के मुक्तिधाम नहीं की गयी है।मुख्य वजह गोंडपारा की कृष्णा देवी यादव हैं।  82 साल की कृष्णादेवी सिम्स से निकलने वाले सभी लावारिश शव को विधि विधान से अंतिम यात्रा के लिए विदा करती हैं। बिना रूके,बिना थके, बिना किसी स्वार्थ के पिछले तीस साल से कृष्णा देवी यादव इस काम को अंजाम दे रही हैं।

                   सिम्स कर्मचारियों ने बताया कि सिम्स से निकले लावारिश शव को मुक्तिधाम तक पहुंचाने से पहले कृष्णा देवी के घर के सामने रखा जाता है। इस दौरान कृष्णा देवी यादव हमेशा की तरह  घर के सामने शव को विधि विधान से सम्मान देती हैं। शव पर कफन डालने के अलावा लाश को मुक्तिधाम ले जाने वाले सिम्स कर्मचारियों को क्रिया कर्म के लिए रूपए भी देती हैं। लोगों ने बताया कि कृष्णा देवी की अजीविका का एक मात्र साधन गोड़ंपारा स्थित घर में बना मंदिर है। मंदिर की आय से ही शव का दाह संस्कार और कफन दफन का खर्च उठाती हैं।

लावारिश का भी वारिश

                                 82 साल की कृष्णा ने बताया कि पहले लोग ऐसा करने से रोकते और टोकते थे। लेकिन धीरे धीरे लोग मेरी आदतों से और मैं उनके रोक टोक की आदी हो गयी। अब तो लोग समर्थन भी करने लगे हैं…अच्छा लगता है। लोग कहते थे कि शव को घर के सामने रखना अशुभ है। लेकिन मुझ पर इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ा। पिछले तीस साल से लावारिश लाशों की विधि विधान से अंतिम विदाई में ऐसा व्यस्त हुई कि अब कुछ सुनाई ही नहीं देता है। सिम्स के कर्मचारी घर के सामने लावारिश लाश लेकर आते हैं। पूजा पाठ कफन-दफन के बाद अंतिम यात्रा को विदा करती हूं।  ऐसा करने से मन खुश होता है।  मेरा मानना है कि मरने वाले या वाली का कोई माता पिता  तो जरूर होगा। यदि नहीं होता तो वह इस दुनिया को कैसे देखता। अंतिम यात्रा की व्यवस्था कर मैं ऊपर वाले को बताना चाहती हूं कि अंतिम यात्रा पर निकला व्यक्ति लावारिश नहीं है।
धीरे धीरे लोगों ने स्वीकारा
                          कृष्णा देवी के पोते गोपाल कृष्ण यादव ने बताया कि सिम्स बनने से पहले यहां धर्म अस्पताल हुआ करता था। तात्कालीन समय धर्म अस्पताल से रोज दो एक लावारिस शव को दफनाने के लिए मुक्तिधाम भेजा जाता था।अस्पताल के कर्मचारी शव कों  दरवाजे के सामने से ठेला पर लादकर मुक्तिधाम ले जाते थे। शव को ठेले पर ले जाते देख दादी पीड़ा होती थी। जब दर्द बर्दास्त नहीं हुआ तो उन्होने सबी लावारिश शव को सम्मान के साथ अंतिम विदाई देने का बीड़ा उठाया। इस अभियान को पिछले तीस साल से बिना रूके बिना थके,बिना स्वार्थ के दादी कर रही हैं। दादी को शुरू में घर के विरोध का सामना करना पड़ा। बाद में लोगों ने महसूस किया कि काम परमार्थ का है। फिर धीरे धीरे घर के लोगों ने समर्थन भी मिला।
                       राज्य बनने के बाद धर्मअस्पताल की जगह सिम्स बन गया। सिम्स के कर्मचारी हमेशा की तरह लावारिश लाश को सम्मान के सबसे पहले घर के सामने लाखर रखते हैं। दादी विधि विधान से संस्कारों का निर्वहन करती है। सिम्स कर्मचारियों को कफन दफन के लिए पैसे देती हैं। ताकि मृतक के शव को सम्मान के साथ मुक्तिधाम पहुंचकर अंतिम संस्कार किया जा सके।
मन को मिलता है सुकून
         कृष्णादेवी ने बताया कि ऐसा करने से दिल को सुकून मिलता है। मैं नहीं जानती की मरने वाला किस जाति या धर्म का है। इतना जरूर जानती हूं  जब भगवान है तो मरने वाला लावारिश कैसे हो सकता है। मंदिर के देवता से विनय प्रार्थना करने के बाद शव को अंतिम यात्रा के लिए विदा करती हूं। ईश्वर के आदेश पर कफन दफन की व्यवस्था करती हूं।  ऐस करने से दिल को सुकून मिलता है। ऐसा लगता है कि मैं अपने दायित्वों का निर्वहन कर रही हूं। क्योंकि सबको ईश्वर ने बनाया है। फिर उसकी अंतिम यात्रा सम्मान के साथ क्यों ना हो।
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