बिल्हा का उड़गन गांवःजहां गूँजता है पत्थरों का संगीत…

Chief Editor
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shilP_3(रुद्र अवस्थी)मुंबई- हावड़ा मेन रेल लाइन से धड़धड़ाते हुए गुजरने वाली तेज रफ्तार रेलगाड़ियों में कई बड़ी हस्तियों के साथ ही बड़े-बड़े कलाकार भी आते-जाते हैं…।दुनिया जहान को जानने वाले सैकड़ों-हजारों मुसाफिर भी वहां से गुजरते हैं…।लेकिन किसी को कभी यह मालूम नहीं हो पाता कि बिल्हा- दगौरी स्टेशनों के बीच इसी रेल लाइन से दो–तीन फर्लांग की दूरी पर बसा गांव उड़गन शिल्पकारों का गांव है…।जहां कई घरों में बच्चों से बड़े तक सभी लोग पत्थरों को अपने मन-माफिक आकार देने में माहिर हैं।लेकिन ऐसी खूबियों के बावजूद यह गांव गुमनाम–अनजाना सा लगता है।यहां तक कि स्वरोजगार योजनाओँ के नाम पर मदद का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार ने भी इन शिल्पकारों की सुध नहीं ली। ऐसे शिल्पकार जो आधुनिक सुविधाएँ मिलने पर अपने गांव का नाम दूर-दूर तक रौशन कर सकते हैं…।

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                                                    shilp_5बिलासपुर से सड़क होकर बमुश्किल बीस-पचीस किलोमीटर की दूरी पर बसे बिल्हा ब्लॉक के उड़गन गांव में दाखिल होते ही छेनी-हथौडियों के जरिए निकलता पत्थरों का संगीत सुनाई देता है। रेल्वे क्रांसिग पार कर जैसे ही  गांव में पहुंचेंगे सामान्य गांवॆ से कुछ अलग पत्थर और मूर्तियों जहां-तहां नजर आने लगेंगी। गांव के भीतर संकरी गलियों में भी कुछ ऐसा ही नजारा है। रेल्वे लाइन की ओर लगे देहाती बच्चों के क्रिकेट मैदान के पास ही बरगद- पीपल के पेड़ के पास सुखनाथ राम निषाद का मकान है। जिसके सामने ही कई मूर्तियां बिखरी नजर आती हैं। मूर्तिकार सुखनाथ राम निषाद के पिता भी मूर्तियां बनाते थे । अब वे पिछले कोई पैंतीस साल से यह काम कर रहे हैं। उनका बेटा रोहित भी इस काम में लगा है।

                                              shilp_1वे हनुमान, दुर्गा, शिव,सरस्वती सभी देवी-देवताओँ की मूर्तियां बनाते हैं।अपनी कल्पना के आधार पर भी पत्थर तराशते हैं और चित्रों पर देखकर भी उसे हू-ब-हू पत्थर पर उकेरने का हुनर रखते हैं।अपनी ओर से भी मूर्तियां बनाते हैं और ऑर्डर मिलने पर भी तैयार करते हैं।उनकी बनाई मूर्तियां बिलासपुर सहित रायपुर , दुर्ग , राजनांदगांव, जगदलपुर तक जाती हैं।सुखनाथ राम निषाद ने तालागांव के रुद्र शिव प्रतिमा की प्रतिकृति पत्थर पर तैयार की थी, जो विधानसभा में रखी गई है। यहां के शिल्पकारों ने शंकर और हनुमान की एक ही पत्थर पर पचीस फीट तक की ऊंचाई वाली मूर्ति को अपने हाथों से तराशकर आकार दिया है।

                                               shilp_2पत्थरों के संगीत से गूँज रही मूर्तिकारों की बस्ती उड़गन, दुनिया में अपनी तरह की अनूठी रुद्रशिव प्रतिमा की वजह से मशहूर तालागांव से काफी नजदीक है।तालागांव की खुदाई में करीब डेढ़ हजार साल पुरानी प्रतिमा मिली है। उसके नजदीक के गांव में घर-घर शिल्पकला देखकर लगता है कि कहीं-न-कहीं दोनों के बीच पुराना रिश्ता हो सकता है।ताला में अनूठी प्रतिमा और भव्य मंदिर गढ़ने वाले लोग आस-पास के ही रहे होंगे।उड़गन में एक व्यक्ति ने बताया कि बहुत साल पहले एक साधू किस्म के व्यक्ति नें यहां एक झोपड़ी में रहकर मूर्तियां बनाने का काम शुरू किया था। उसे देखकर यहां के लोग भी धीरे-धीरे पत्थर तराशने लगे। फिर यह सिलसिला आगे बढ़ते-बढ़ते गांव के हुनर में बदल गया। इस गांव के लोगों की तरह उड़गन के पत्थरों की भी एक खूबी यह है कि यहां के पत्थरों में रेशे और धारियां नहीं होती । जिससे पत्थर किसी भी मौसम में टूटता नहीं और उसे जैसा चाहे वैसा आकार दिया जा सकता है। यूं तो आस-पास के इलाके के पौंसरी,केंवाछी,कांपा, ताला,संबरपुरी, बिल्हा, भैंसबोड़, चकरभाठा, धमनी आदि गांवों में पत्थर निकलते हैं। लेकिन इन पत्थरों में वैसी बात नहीं है, जो उड़गन के पत्थरों में है।

                                                                        कुदरत नें इस गांव को खास किस्म के लाल पत्थरों का तोहफा दिया और बदले में गांव के shilp_6लोगों ने अपने अंदर हुनर पैदा कर इन पत्थरों को अपने हाथों से पूजने लायक बना दिया। इस मायने में उनका यह हुनर भी पूजनीय बन गया। जिसे यह गांव पीढ़ी-दर –पीढ़ी आगे बढ़ाता जा रहा है। लेकिन इस गांव के लोगों की हालत उन बेजुबान पत्थरों की तरह ही नजर आती है। जिन्हे सुंदर आकार तो मिल जाता है ।लेकिन वे कुछ बोल नहीं पाते।पत्थरों को तराशने वाले उड़गन गांव के लोगों को भी अब तक व्यवस्था के जिम्मेदार लोगों ने पत्थरों से अलग हटकर नहीं देखा।तभी तो पत्थर तराशने वाले उड़गन के लोगों की जिंदगी तराशने के लिए किसी ने अब तक कुछ नहीं किया।गांव के सुखनाथ राम, रोहित,घांसीराम, सुरेश कुमार,फूलदास,अशोक…जाहे जिससे भी बात कर लीजिए सभी की तकलीफ यही है कि उनके हुनर को किसी ने अहमियत नहीं दी।मूर्तियां बनाने के बाद प्राण प्रतिष्ठा होती है और फिर पूजन-अर्चना शुरू हो जाती है।उसे देखकर मन आनंद से भर उठता है। लेकिन मूर्तियां गढ़ने वाले कलाकारों की जिंदगी की फिकर किसी को नहीं है।लोगों को रोजाना की मजदूरी भी नहीं मिल पाती।सुखनाथ राम बताते हैं कि कभी रायपुर के शिल्प समारोह में उन्हे भी बुलाया गया।लेकिन समारोह में सिर्फ नुमाइश के तौर पर पेश कर दिया गया। पत्थर और पूरा सामान लेकर गए।लेकिन आने-जाने के खर्च के अलावा कुछ नहीं मिला। बाद में सुध लेने वाला कोई नहीं आया।गांव के कलाकार अपनी सूझ-बूझ से पत्थर की सफाई-घिसाई के लिए मशीनों का इंतजाम कर रहे हैं। मूर्तियों की मांग कम नहीं हैं। चूंकि शास्त्रों के मुताबिक पत्थर की मूर्तियों को ही पूजा में सर्वश्रेष्ठ माना गया है।इस लिहाज से आने वाले कल को लेकर उम्मीदें भी बहुत हैं।

                                            shilp_4लेकिन कच्चे माल के इंतजाम और बाजार की सहूलियत के बिना गांव के इस परंपरागत हुनर के सामने अब खतरा मंडराने लगा गै।शिल्प का काम करने वाले पहले से घटते जा रहे हैं।नई पीढी का रुझान कम हो रहा है।गांव के केंवट और सतनामी समाज के लोग इस काम में जुड़े रहे हैं। जिन्हे कच्चे माल के रूप में लाल पत्थर बिचौलियों से खरीदना पड़ता है। और मार्केंटिंग की कोई सहूलियत नहीं मिल पाती। गांव को लोग भी कहते हैं कि यदि उन्हे सहूलियतें मिलें तो और भी बेहतर काम कर सकते हैं और ने वाली पीढ़ी खुशहाल हो सकती है।उड़गन में खड़े होकर यही महसूस होता है कि पत्थरों को तराशने वाले इस गांव के लोगों की जिंदगी तराशने के लिए अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है।

shilp_7बन सकता है शिल्पग्राम
उड़गन की इस शिल्पकला की तरक्की और इसे दूर-दूर तक ले जाने के लिए काफी समय से प्रयासरत जिला पंचायत के पूर्व सदस्य अजय शर्मा मानते हैं कि इस गांव को शिल्प ग्राम का रूप देकर यदि सरकार की मदद मिले तो यह कला और भी निखर सकती है। यहां के कारीगरों को इंटीरियर डिजाइनिंग से जोड़ा जा सकता है।यहां के शिल्पकारों को बिना रायल्टी के पत्थर मुहैया कराया जाए तो फौरी तौर पर उन्हे काफी राहत मिल सकती है।पर्यटक भी यहां आ सकते हैं। शिल्पकला यहां के लोगों के रोजगार का अच्छा माध्यम बन सकती है। सरकार गाँव के लोगों को गाँव में ही रोजगार मुहैया कराने तरह-तरह के कौशल विकास कार्यक्रम चला रही है। उसमें इसे भी शामिल किया जाना चाहिए।

गांव के नौजवान से उम्मीदें…
IMG-20170212-WA0001उड़गन गांव की गलियों में घूमते समय इत्तफाक से  हमारी मुलाकात गांव के ही नौजवान अशोक मिरी से  मुलाकात हुई। बचपन में इसी गांव में अपने हाथों से पत्थर तराशने वाले अशोक के पास हुनर के साथ ही स्टडी भी है। उन्होने इंटरनेशनल प्रोडक्ट डिजाइनर की डिग्री ले रखी है।उनका मानना है कि यहां के लोगों में कमाल की काबिलियत है।नई पीढ़ी भी पीछे नहीं है। यदि सही ट्रेनिंग और आगे बढ़ने का रास्ता मिले तो यह एक बेमिसाल गांव बन सकता है।अशोक ने हस्तशिल्प विकास बोर्ड को शिल्पग्राम बनाने के लिए एक प्रपोसल भी दिया।अशोक ने गांव के चबूतरे पर बैठकर अपने लेपट़ॉप पर हमें दिखाया कि किस तरह के छोटे-छोटे शो-पीस तैयैर किये जा सकते हैं और यहां की शिल्पकला को नई पहचान दी जा सकती है।अशोक एक ट्रेनिंग सेंटर खोलकर बच्चों को मुफ्त में यह सब सिखाते भी रहे हैं।लेकिन बदकिस्मती यह है कि अब तक सरकार के स्तर पर उनकी कल्पना के अनुरूप काम नहीं हो सका है।फिर इस नौजवान के चेहरे पर उम्मीद की किरणें अब भी देखीं जा सकती हैं।

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