नोटबंदी ने छीनी नींद..लाचार,बेबस ग्रामीण भारत

BHASKAR MISHRA

IMG-20161117-WA0002बिलासपुर— भारत की आबादी गावों में निवास करती है। बचपन से लोग यही पढ़ते आ रहे हैं। नोटबंदी के बाद ग्रामीण तंत्र बुरी तरह से जख्मी है। एक हज़ार और पांच सौ के नोटों के अचानक बंद होने से ग्रामीण जीवन ठहर गया है। किसान से लेकर गांव से शहर आकर रोजी मजदूरी करने वालों की हालत बद से बदतर हो गयी है। जहां काम करने जाते हैं वहा भी पांच सौ एक हजार का नोट पीछा नहीं छोड़ रहा है। बैंक है कि नोट बदलने को तैयार नहीं है। बैंक यदि नोट दे भी रहा है तो किसानों और मजदूरों की एक दिन की दिहाड़ी मारी जा रही है। दरअसल नोटबंदी अभियान के बाद भारत का गांव चैन की नींद से कोसों दूर खून के आंसू रो रहा है।

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                      नोटबंदी अभियान का जैसे जैसे दिन गुजर रहा है ग्रामीणों की हालत दिनों दिन बद से बदतर होती जा रही है। नोट नहीं होने से ग्रामीणों के चूल्हे भी अब जलना बंद हो गये हैं। बिलासपुर से लगे सेन्दरी गांव और ग्रामीणों की हालत कुछ ऐसी ही है। सड़क किनारे बसा सेन्दरी गांव जो हमेशा चहचहाता था आज उस गांव को जैसे सांप सूंघ गया है। चारो तरफ सन्नाटा और केवल सन्नाटा है। नोटबंदी के बाद गाँव में आपातकाल जैसी स्थिति है। छोटे नोटों की कमी के कारण लोगों का गुजारा मुश्किल हो गया है। ग्रामीणों के पास नोट तो हैं लेकिन उस नोट में इतनी ताकत नहीं है कि दस रूपए की सब्जी भी खरीदा जा सकें।

                             जनमानस में धारणा रही है कि ग्रामीण तंत्र में नोटों का ज्यादा प्रचलन नहीं है। टीवी और समाचार पत्रों में कहा जा रहा है कि नोटबंदी अभियान के बाद ग्रामीण भारत सुख चैन की नींद सो रहा है। लेकिन सारी सारी बातें सरासर गलत हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरों की मजदूरी, किसानों के अनाज और सब्ज़ी-फलों के भुगतान में नोट की जरूरत पड़ती है। आम लोगों की तरह ग्रामीणों ने भी हमेशा की तरह विपरीत परिस्थितियों से निपटने बड़े नोटों का संग्रह किया। बडे नोटों का संग्रहण उनके जीवन में नासूर साबित हो रहा है। ग्रामीण तंत्र जरूरी खर्च तो गांव से बाटर्ली सिस्टम से पूरा कर लेता है। लेकिन अन्य जरूरतों को नोट से पूरा करता है। चूंकि ग्रामीण क्षेत्र में अभी हाईटेक भारत नहीं है। इक्का दुक्का ग्रामीण क्षेत्रों में बैंक है। लेकिन वह भी पर्याप्त नहीं है। इसलिए ग्रामीणों को भी बड़े नोटों ने बेचैन कर दिया है।

                           IMG-20161117-WA0001बड़े नोट ग्रामीणों के लिए चिंता का कारण हैं। दिन गुजरने के साथ ग्रामीणों के खुल्ले पैसे अब ख़र्च हो गये हैं। बैंकों का हाल बेहाल है।  ग्रामीण क्षेत्रों में नोट बदलने की मुहिम अभी भी ना के बराबर है। कई ग्रामीणों ने आज तक खाता भी नहीं खुलवाया है। ऐसे में एटीएम रखने का सवाल ही नहीं उठता है। मज़दूरों के पास ऐसा कुछ भी नहीं है कि जिसके दम पर कुछ सौदा कर पेट की आग बुझा सकें।

                             बिलासपुर से लगे दस हज़ार की आबादी वाले सेंदरी गांव की हालत नोटबंदी अभियान के बाद पस्त है। सरपंच राजेंद्र साहू ने बताया कि मजदूर और किसान हलाकान हैं। जमीन है लेकिन सब बेकार साबित हो रहे हैं। मजदूर और किसान काम धाम छोड़कर हजार पांच सौ का नोट लेकर बैंक के सामने खड़े हैं। दिन भर बैंक की पहरेदारी के बाद उन्हें फुटकर मिल रहा है। दिन की रोजी और कामकाज का अलग से नुकसान हो रहा है।राजेन्द्र ने बताया कि मजदूरों में इतना भय है कि ग्रामीण क्षेत्रों में बैंक नहीं होने से बड़े नोटों को आधे दाम पर बेंचा जा रहा है। बड़े किसानों के पास पैसे नहीं हैं कि मजदूरी का भुगतान कर सकें। जैसे तैसे काम चल रहा है। किसानों और मजदूरों का हमेशा से शोषण हुआ है। इसलिए लोग आश्वासन पर काम भी नहीं करना चाहते हैं। कुल मिलाकर नोटबंदी के बाद मजदूरों के साथ साथ लोगों में विश्वास का भी टोंटा है।

                                                                      नोटबंदी के कारण सेंदरी और उसके आसपास के गांवों में बाज़ारों की रौनक गायब है। जैसे जैसे दिन गुजर रहे हैं छोटे नोट ख़त्म हो रहे हैं। दुकानदारों ने बड़े नोट लेने से इंकार कर दिया है। अब तो मजदूरों को मजदूरी देने के लिए भी लोगों के पास छोटे नोट नहीं हैं। सब्ज़ी दुकान में रखे- रखे सड़ने लगी है। खरीददार के पास नोट नहीं है…दुकानदार बड़ा नोट लेने को तैयार नहीं है। ग्रामीण सिस्टम पूरी तरह से तबाह हो गया है। सब्जियां खेत में ही सड़ रही हैं। सेंदरी बाजार में सब्ज़ी बेचने बैठी बसन्ती ने बताया कि नोटबंदी अभियान के बाद भोला भाला ग्राहक भी धूर्त हो गया है। सब्जी लेने के बाद बड़ा नोट थमाता है। पहले तो जैसे तैसे हमने किसी तरह काम किया… अब हमारे पास भी छुट्टे नहीं हैं। जिसके चलते सब्जी का बाजार पूरी तरह से चौपट हो गया है। सब्ज़ियां सड़ रही हैं।

                        किराना दुकान संचालक राजेश कुमार ने बताया कि नोटबंदी अभियान के बाद वह दुकान खोलकर केवल रस्म अदायगी कर रहा है। बिक्री पूरी तरह से ठप है।  गांव-गांव सायकल से घूम कर सब्ज़ी बेचने वाला मालिकराम यादव ने बताया कि अब उसके पास नमक और तेल खरीदने के पैसे नहीं हैं। कुछ दिन ऐसा ही चला तो उनके सामने आत्महत्या के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। घर में बच्चे भूखे हैं। उनके लिए पैसे कहांं से लाऊं। बाजार में छुट्टे हैं नहीं और बड़े नोट लेने की मेरी औकात नहीं है। यदि नोट ले भी लूं तो बैंक की लम्बी लाइन में खड़े होने की ताकत मेरे पास नहीं है। खड़ा हो भी जाऊं तो दस तरीके के नियम परेशान करते हैं। मालिकराम ने बताया कि गांव में आक्रोश लगातार बढ़ता जा रहा है। अब तो डर लगता है कि पेट भरने के लिए कहीं लोग लूटपाट का धंधा ना शुरू कर दें। बेशक हालात अभी ऐसे नहीं है..लेकिन ऐसे ही कुछ दिन चलता रहा तो लोग पेट की आग बुझाने एक दूसरे के जान के दुश्मन बन जाएंगे।

                               IMG-20161117-WA0000शहर के पढे लिखे लोग कह रहे हैं कि गरीब आदमी को हज़ार- पांच सौ के नोट बंद होने से कोई फर्क नहीं पड़ा है। नोटबंदी अभियान के बाद गरीब चैन की नींद सो रहा है। सीजी वाल का ऐसा कहने वालों को बताना चाहता है कि कम से कम एक बार ग्रामीण भारत को नजदीक से जाकर जरूर देंंखें। क्या सचमुच वह चैन की नीद सो रहा है। सच्चाई यह है कि इन दिनों ग्रामीण भारत बेबस, लाचार, और अपाहिज की जिन्दगी जी रहा है। गरीब मजदूर और किसान खून के आंसू रो रहे हैं। दरअसल नोटबंदी अभियान के बाद भारत के दिल को इस बार सीधा चोट लगा है।

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