गुगुदाते हुए भी कटाक्ष की बारीक नोंक का अहसास कराने वाले शब्दों में डूबे व्यंग लेखन की एक अलग ही परंपरा रही है। सीधे कुछ कहे बिना भी झकझोर देना इस लेखन शैली की खासियत रही है। जो क्रिकेट के खेल में “रिवर्स स्विंग” वाली गोलंदाजी की याद दिला जाती है। इस विधा में पहले भी खूब लिखा गया है और अब भी बढ़िया लिखने वाले हैं। हमारे साथी पत्रकार व्योमकेश त्रिवेदी (आशु) ने भी शहर के हालात पर कुछ इसी अंदाज में अपनी कलम चलाई है। “शहरनामा” में हम इसे अलग-अलग कई कड़ियों में प्रस्तुत कर रहे हैं। पेश है दूसरी किश्त–
व्योमकेश त्रिवेदी का लिखा…..
पुराने जमाने में स्मार्ट सिटी बिलासपुर के नेता हम स्मार्ट सिटीजन्स की सुविधाओं का बड़ा ध्यान रखते थे, वे हमारे शहर में सड़क, नाली बनवा देते थे, स्ट्रीट लाइट भी लगवाते थे, अस्पताल खोलकर उसमें अपनी पसंद के डाक्टर, नर्स की नियुक्ति करा देते थे। हमारे एक नेता ने बड़ी टाकीज बनवाई थी, उस समय हम इसी बात पर खुश रहते थे कि अमिताभ बच्चन की पिक्चर बंबई और बिलासपुर में एकसाथ लगती है। हम दूसरे बड़े शहरों में रहने वालों से यही कहते थे कि तुम कितना भी टीवी देख लो, अमिताभ की पिक्चर देखने तो बिलासपुर ही आना पड़ेगा…
हमारे शहर में यूनिवर्सिटी नहीं थी, बच्चों को छोटे छोटे काम के लिए रायपुर की दौड़ लगानी पड़ती थी, बड़ी मेहनत के बाद भी हमारे शहर का कोई छात्र टाप टेन में नहीं आता था, पर हम कभी शिकायत नहीं करते थे। वो तो कुछ गैर स्मार्ट छात्र नेताओं ने आंदोलन कर दिया, नेताओं की अंदरूनी उठापटक के कारण यहां यूनिवर्सिटी खोल दी गई, नहीं खुलती तो भी हम खुश ही रहते, दुखी नहीं होते। यूनिवर्सिटी खुलने से हमारे बहुत से लोग बिल्डिंग बनाने का, सप्लाई का ठेका पाकर खुश हो गए। बहुत से छात्र नेता और दूसरे नेताओं को नेतागीरी का नया अवसर मिला। गली गली में नेता मंत्री तो पहले से थे, यूनिवर्सिटी खुलते ही घर घर में छात्र नेता हो गए। बहुत से 10-10 साल के फेलवरों को एक झटके में यूनिवर्सिटी टापर बनने का अवसर मिल गया, टापर के तमगे से उनका और कुछ भला हुआ हो या नहीं, कम से कम उनकी शादी तो हो ही गई, हम यही देखकर खुश हो गए।
विकास के क्रम में हमारे शहर में कोल इंडिया के एसईसीएल का दफ्तर खुला, हम बड़े खुश हुए। उस समय हमसे कोई पूछता था कि क्या है तुम्हारे शहर में…तो हम बड़े गर्व से बताते थे कि हमारे शहर में एसईसीएल का दफ्तर है, चाल के मकानों में रहने वाले हम लोग घर आए मेहमान को एसईसीएल का चमचमाता दफ्तर, कालोनी घुमाकर गौरवान्वित होते थे, कहते थे किस्मत बदल गई है हमारे शहर की, बिलकुल बड़े शहरों सा हो गया है हमारा शहर। एसईसीएल का दफ्तर खुलने से हमारे शहर को कोई लाभ नहीं हुआ। हमारे शहर के बच्चों को कभी नौकरी नहीं मिली, निर्माण का ठेका आदि भी अधिक नहीं मिला, पर हमारे शहर के लोगों को एसईसीएल की कालोनियों की साफ सफाई का ठेका जरूर मिल गया, हम इसीमें खुश हो गए। लंबे समय तक हमारे शहर में कोई बड़ा नया काम नहीं हुआ, कुछ पुल पुलिए और भवन आदि ही बने, पर हम उतने में ही संतुष्ट रहे, अपनी खुद की दुनिया में खोए रहे।
कुछ साल बाद रेलवे जोन का मुद्दा उठा, हमारे शहर के कुछ गैर स्मार्ट लोगों ने बिलासपुर को स्वाभाविक हकदार बताते हुए रेलवे जोन का दफ्तर खोलने की मांग की, बड़ा आंदोलन हुआ। हमेशा की तरह कुछ नेता इसे भी लूटकर अपने शहर ले जाने का प्रयास करने लगे, इससे विरोध भड़का, तोड़फोड़ हुई। बड़ी मुश्किल से हमारे शहर को रेलवे जोन मिला, हम खुश हो गए, सोचा चलो अब शहर के दिन फिरेंगे, हमारे शहर में जोनल कार्यालय होगा तो हमारे बच्चों को आसानी से रेलवे की नौकरी मिल जाएगी, पर बाद में पता चला कि रेलवे जोन होने के बाद भी हमें कोई बहुत अधिक लाभ नहीं हो रहा, लोकल बच्चों को नौकरी आदि भी नहीं मिल रही, परन्तु हम निराश नहीं हुए, हम खुश ही रहे। आज भी हम गर्व से यह कहकर खुश हो जाते हैं कि बिलासपुर में रेलवे जोन है..
रेलवे जोन ही क्यों, हमारे शहर के पास एनटीपीसी का सुपर क्रिटिकल पावर प्लांट खुला, हमारे कई गांव उजड़ गए, पर्यावरण प्रदूषित हुआ, पर हमने सोचा कि चलो इसकी स्थापना से हमारे कुछ लोगों का भला होगा, पर इसमें भी हमारे लोगों को नौकरी नहीं दी गई, लेकिन हमने कभी शिकायत नहीं की। प्लांट खुल गया, हम इसी में खुश हैं। अब एसईसीएल हमारे क्षेत्र का कोयला ले जाता है, रेलवे उस कोयले को देश के विभिन्न भागों तक पहुंचाता है। एनटीपीसी हमारे कोयले से बिजली बनाकर उसे देश के दूसरे हिस्सों तक पहुंचाता है। हमारे बच्चों को नौकरी नहीं मिलती, हमारे शहर या गांवों का विकास नहीं होता तो उससे फर्क क्या पड़ता है। हमारे संसाधनों से देश की जरूरत पूरी हो रही है, हमारे लिए यह गर्व का विषय है, हम अपने संसाधनों से देश सेवा कर रहे हैं, हम यही सोचकर खुश हैं। वैसे भी कोयला निकालना और बिजली बनाना हमारे बस का रोग नहीं है, हम वह काम कर भी नहीं सकते थे, इसलिए हम अरपा की रेत बेचकर खुश हैं….
( जारी है)