सिनेमा की “जिंदगी” का अहसास करा गई एक शाम….

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IMG_2949(रुद्र अवस्थी) “जिसने भारतीय सिनेमा के अंदर जिंदगी का सचमुच अहसास किया हो..। जो सिनेमा में जीवंतता के बहाव में खुद गोता लगाता हो और इसके गहरे पानी पैठ –एक अदद मोती ही नहीं , अलबत्ता मोतियों का गुच्छा निकाल लाने का हुनर जानता हो..। जो सिनेमा को दुनिया का सबसे ताकतवर-असरकारक मीडिया मानता हो..।जिसे अच्छे सिनेमा के साथ उम्दा कलाकार की पक्की परख हो…।जिसने हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े शोमेन मरहूम राजकपूर साहब जैसी हस्तियों के बाजू बैठकर सिनेमा के मरम को समझा हो…..।जो यह मानता हो कि बाजार के इशारे पर चल रही आज की जिंदगी के बीच भी हिंदुस्तान को सिनेमा ही बदल सकता है….।और जो जनता की आवाज की आवाज को जनता तक पहुंचाने के मामले में सबसे ताकतवर –दमदार सिनेमा को मल्टीप्लेक्स से वापस निकालकर सस्ते रूप में आम आदमी के करीब लाने की वकालत करता हो…।“ यकीनन ऐसी शख्सियत  की खरी-खरी, साफ-सुथरी बातें सुनने को मिले तो कोई भी शाम सुहानी हो सकती है।

                      IMG_2948पिछले इतवार की शाम अपने साथ कुछ ऐसी ही शख्सियत को लेकर आई, जब शहर को राष्ट्रीय पाठशाला में विचार मंच के एक कार्यक्रम में देश के जाने-माने फिल्म – समीक्षक प्रहलाद अग्रवाल  बोलने के लिए खड़े हुए।यही वजह है कि इस कार्यक्रम के आखिर  में वहां मौजूद बुद्धजीवियों ने रविवार की यह शाम सुहानी और खुशनुमा बनाने के नाम पर आयोजक द्वारिका प्रसाद अग्रवाल को मुबारकबाद दी।राजकपूर की जिंदगी और भारतीय सिनेमा के इतिहास पर “हाथो-हाथ” बिकने वाली किताबें लिख चुके प्रहलाद अग्रवाल ने एक खास अँदाज में अपनी बात रखी। …..और विचार मंच की उस गोष्ठी में मौजूद लोगों को हिंदुस्तानी सिनेमा को लेकर अपने अहसासात का अहसास कराने में पूरी तरह कामयाब रहे। ……. जैसे कोई रागों के रस में डूबी बेगम अख्तर की आवाज में डूबकर दादरा सुने……। जैसे कोई विवियन रिचर्ड्स या गुंडप्पा विश्नाथ जैसे क्लासिकल बैट्समैन को क्रिज पर अपनी जगह खडे-खडे कोई गेंद मनचाही सरहद के पार उछालते हुए देखे……। जैसे जनसत्ता अखबार में प्रभाष जोशी जी कलम से क्रिकेट या टेनिस मैच की समीक्षा पढ़ने को मिले…..। जैसे रघुराय की फोटोग्राफी में जिंदगी की सचाई को निहारने का मौका मिले…..। जैसे तजुर्बे की चासनी में डूबे सईद जाफरी जैसे अदाकार से कोई डॉयलाग सुनने को मिले….। ……आर के लक्ष्मण जैसे कार्टूनिस्ट का कार्टून देखकर कोई गुदगुदी का अहसास करने लगे…..।

                     प्रहलाद अग्रवाल की पेशकश को इतनी उपमाओँ से जोड़ने की वजह सिर्फ और सिर्फ यही है कि – उनकी बातों को सुनकर “ गूंगे केरी सरकरा –खाई और मुस्काए…”. की तर्ज पर यही कहा जा सकता है कि जितनी जीवंतता से बात कही गई- लिखते समय शब्दों को उतनी जिंदगी देने में कम-से-कम मैं तो अपने –आप को कम ही पाता हूँ।लिहाजा मुझ जैसे “गूँगे” की “मुस्कान” को देखकर “गुड़ की मिठास” का सिर्फ अँदाजा ही लगाया जा सकता है।मुझे हिंदी फिल्म “लव 1942” का वह गीत याद आ गया….”.एक लड़की को देखा  तो ऐसा लगा…जैसे खिलता गुलाब….जैसे शायर का ख्वाब…जैसे उजली किरण…..जैसे बन में हिरण……..जैसे मंदिर में हो एक जलता दिया…….”।

                  इस कार्यक्रम की रिपोर्टिंग में कुछ लाइनें लिखीं जा सकती है-तो यही कि- सिर पर थोड़े से लेकिन लम्बे बाल……और उससे भी लम्बी फलसफाना अदाज की दाढ़ी…..। चमकती नजरों के ऊपर मोटी सी काली फ्रेम का चश्मा…….। बदन पर दरवेश की माफिक सूफियाना बंडी और सफेद धोती…….। जिससे रू-ब-रू होते ही किसी को भी शक होने लगे कि “बाबा” और सिनेमा के बीच कोई रिश्ता भी हो सकता है..। लेकिन जब उन्होने साढ़े ग्यारह साल की उमर में देखी गई अपनी पहली फिल्म “अनाड़ी” से साथ बतकही के अँदाज में बातों का सफर शुरू किया और यह सिलसिला “बाजी राव मस्तानी” तक पहुँचा तो लगा कि  बातों के इस सफर में उनका हमसफर बनना कितना सुहाना है।

standnew                    कार्यक्रम की शुरूआत में वहीं पर प्रोजेक्टर के जरिए दिखाए गए फिल्म “मेरा नाम जोकर” के पहले भाग का जिक्र करते हुए उन्होने बताया कि इस फिल्म से जुड़े कौन से किस्से खुद राजकपूर ने उनके साथ साझा किए थे। फिल्म जब बनी तो करीब साढ़े-चार घंटे की थी और जब एडीटिंग हुई तो अढ़ाई घंटे में सिमट गई।प्रहलाद अग्रवाल हिंदी सिनेमा में सत्यजीत राय के नाम की चर्चा भी करते हैं और केदार शर्मा की “जोबन” को सर्वश्रेष्ठ फिल्म के रूप में पेश करने में उन्हे कोई झिझक नहीं होती। प्रहलाद मानते हैं कि दुनिया भर में जनजीवन पर सबसे अधिक असर डालने वाला मीडिया सिनेमा ही है। आज बाजार के दौर में किसी भी क्षेत्र में बदलाव लाने की सबसे बड़ी ताकत सिनेमा के पास ही है। साहित्य कितना भी बेहतर हो- उसकी पहुँच पढ़ने-लिखने में दिलचस्पी रखने वाले कुछ लोगों तक ही हो पाती है। जबकि सिनेमा सभी तबके तक पहुँच सकता है। भारतीय सिनेमा धर्म और राजनीति को मनुष्य से जोड़कर देखता है। आखिर किस विधा में इतना दम है, जो जीवंत रूप में राजनीति पर इतना खुलकर चोट कर सकता है।“सिंघम” जैसी फिल्में इसकी मिसाल हैं। सिनेमा जनता की आवाज को जनता तक पहुँचाने का सशक्त माध्यम है। प्रहलाद अग्रवाल सिनेमा की इस खासियत का हवाला देकर वकालत करते हैं कि आम आदमी सिनेमा की विधा से जुड़ा रहे –इसके लिए इसे और सस्ता बनाया जाना चाहिए और इसे मल्टीप्लेक्स में कैद करने की केशिश के खिलाफ हम सभी को खड़ा होना चाहिए।

               कार्यक्रम के बाद विचार मँच के विवेक जोगलेकर ने सिनेमा की बातों को किस्सागोई के रस में घोलकर श्रोताओँ को उसका रसपान कराने वाले प्रहलाद अग्रवाल का आभार माना। यह उस रविवार की शाम को सुहानी बनाने के लिए आयोजकों और प्रहलाद अग्रवाल के प्रति सभी का आभार था।

 

 

 

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