(विशाल )बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान छिटपुट घटनाओं के साथ खत्म हुआ। .सूबे के 10 जिलों के 49 सीटों के लिए मतदाताओं ने बढ़-चढ़ के मतदान किया। पहले चरण के मतदान के बाद समीक्षकों ने कयास लगाना शुरू कर दिया है। पहले चरण के मतदान के बाद सरकार किसकी बनेगी पर चर्चा जोरों पर है। वहीं मतदाताओं के उत्साह ने साबित कर दिया कि वह किसी उलझन में नहीं है।
वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में राजनीति के पंडितों को भविष्यवाणी करना काफी मुश्किल साबित हो रहा है। दलों ने कुछ ऐसा ताना-बाना बुना है कि भविष्यवक्ता असमंजस की स्थिति में हैं। बिहार के मतदाता भी वोट देने के बाद मुंह पर ताला लगा लिया है। वे कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है। कभी कभी मतदाताओं की चुप्पी भी बहुत कुछ कह जाती है। इस चुप्पी ने राजनेताओं के पेशानी पर बल पैदा कर दिया है। सत्ताधारी दल कुछ ज्यादा ही परेशान है।
अभी तक राष्ट्रीय जनता दल या फिर वर्तमान जदयू सरकार.. सबने अपने-अपने तरीके से सूबे को संभाला और छला भी। कभी सत्ता में रही कांग्रेस पार्टी को बिहारवासियों ने पहले से ही बेदखल कर दिया है। कांग्रेस को अपने खोए हुए जनाधार और साख के बचाने के लिए क्षेत्रिय पार्टियों के रहमो करम पर बिहार में सांस लेना पड़ रहा है। लालू यादव का लालटेन का हाल भी कुछ अच्छा नहीं है। पिछले दो चुनावों में उन्हें मुंह की खानी पड़ी है। सुशासन बाबू यानी नीतीश कुमार ने पहले पंचवर्षीय में कम से कम बिहार के कुछ बुनियादी ढांचो को सुधारा जरूर… लेकिन दूसरी पारी की बैटिंग से जनता बहुत ज्यादा उत्साहित नहीं है। पलायन ,उद्योग ,नौकरी पैदा करने जैसे अपने तमाम चुनावी वादों में विफल नितीश कुमार ने जनता को कुछ ज्यादा ही निराश किया है। साख बचाने के लिए नीतीश को इस बार खुले तौर पर कास्ट-कार्ड का सहारा लेना पड़ा है। जिस नीतीश कुमार को अकेले रथ पर सवारी करनी थी वे इन दिनों कई सारथी वाले रथ पर दिखाई दे रहे हैं। जाहिर सी बात है कि उनका इस बार आत्मविश्वास कुछ कमजोर दिखाई दे रहा है।
बीजेपी में नितीश के कमजोर होते आत्मविश्वास को लेकर कुछ ज्यादा ही उत्साहि देखने को मिल रहा है। उन्हें पूरा विश्वास है कि इस बार बहुमत भाजपा के पक्ष में ही आएगा। अंक शास्त्रियों का कहना है कि भाजपा के लिए फिलहाल दिल्ली अभी दूर है। जिस तरह सांप्रदायिक सोच की राजनीति..देशभर में चल रही है। उससे बीजेपी के लिए राह कठिन नहीं तो आसान भी नहीं है। बिहार का एक बड़ा भूभाग वामपंथ समर्थक भी है जिनका वोट टस से मस नहीं होता है। प्रत्याशी जीते या हारे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।..हां भाजपा,कांग्रेस, दो अन्य क्षेत्रीय दलों पर जरूर पड़ता है।
बहरहाल बिहार के वोटरों ने लोकतांत्रिक यज्ञ में अपनी आहूति देनी शुरू कर दी है। इस बार वोटर प्रत्याशियों या किसी खास राजनीतिक दल के भविष्य को ही नहीं…बल्कि अपनी राजनीतिक परिपक्वता का भी परिचय देगा। इतना तय है कि बिहार का परिणाम इस बार राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित जरूर करेगा।