बिलासपुर(विशेष संवाददाता)।फिल्म अग्निपथ का मशहूर गाना..अभी मुझमें कहीं बाकी..थोड़ी सी है जिन्दगी..।मिट्टी तेल हॉकर गली उजड़ने के बाद..अस्त व्यस्त लेटे दो आम के पेड़ों को देखकर अग्निपथ गाना बरबस ही याद आ गया। कभी मिट्टी तेल हॉकर गली में रौनक हुआ करती थी। चहल पहल इतनी कि चार पहिया वाहनों का निकालना मुश्किल था। दो पहियों को चलाने में थोड़ी सावधानी रखनी होती थी। कब कहां से कोई बच्चा सड़क पर आ जाए और मोटरसायकल सवार को लेने के देने पड़ जाएं।
फिलहाल निगम कार्रवाई के बाद मिट्टी तेल हाकर गली में सन्नाटा पसरा है। दूर-दूर तक केवल और केवल सन्नाटा….सन्नाटों और उजड़ी जिन्दगी के बीच…निगम कार्रवाई से घायल दो आम सड़क पर लेटे हुए कराह रहे हैं….। आम के पेड़ों को अभी तक सूख जाना चाहिए था। लेकिन देखने के बाद अहसास हुआ कि दोनों आम के पेड़ हार मानने वालों में से नहीं हैं…। उनकी हरियाली आने जाने वालों से बार बार कह रही हैं कि…अभी मुझमें कहीं बाकी…थोड़ी सी है जिन्दगी...। लेकिन सिस्टम को क्या कहें…दोनों घायल जीवों को अब तक बचाने कोई नहीं आया। खुद मैने भी ईमानदारी से प्रयास नहीं किया….।
बरसात के मौसम…खासकर सावन महीना में बंजर धरती दुल्हन की तरह सजकर तैयार हो जाती है। हरियाली की चादर ओढ़कर लोगों को अपने मोंहफाश में बांधती है। सावन की तासीर ही कुछ ऐसी है…प्रकृति सबको भरपूर वरदान देती है…। लेकिन इंसान की फितरत ही ऐसी है कि वह वरदान और अभिशाप की इबारत को पढ़ने में बहुत देर कर देता है। मनुष्य सृष्टि का सबसे बुद्धिमान जीव है। सच यह है कि प्रकृति की बेहतर समझ मानव को छोड़ सभी जीवों में है। दूरदर्शी होने का नाटक करने वाला मनुष्य… वर्तमान के फायदे में जीता है… दूर के नुकसान नुकसान को पढ़ना नहीं चाहता। जिसने पढ़ लिया वह महामानव बन जाता है।
डार्बिन के पांच सिद्धान्तों में से एक योग्यतम की उत्तरजीविता सिद्धान्त है। अग्रेंजी में इस सिद्धान्त को सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट कहते हैं। मतलब योग्य को ही प्रकृति वरण करती है। मनुष्य सिद्धान्त को पढ़कर भी अन्जान है। लेकिन अन्य जीव जगत नहीं…। क्योंकि मनुष्य की मनुष्य की आदत में उपभोक्ता संस्कृति की जहर नस नस में समा चुकी है। जब तक पेड़ पौधे उपयोगी हैं तभी तक उनकी सेवा है….। जिसका सबसे अच्छा उदाहरण मिट्टी तेल हाकर गली में घायल भीष्म पितामह की तरह लेटे आम के दो पेड़ हैं। यद्यपि भीष्म जिन्दगी नहीं चाहते थे…लेकिन यहा घायल दोनों आम के पेड़ अपनी थोड़ी बहुत बची जिन्दगी को जीना चाहते हैं।
करीब एक महीने पहले मिट्टी तेल हाकर गली में रहने वालों के आशियाने को मुहिम के तहत उजाड़ा गया। सभी को जगह-जगह वर्तमान से बेहतर जगह शिफ्ट किया गया। निगम कार्रवाई के बाद जमीन पर पेड़ पौधे भी घायल हुए..कुछ मर गए..कुछ अभी भी जिन्दा हैं….। इनमें घायल आम के दो पेड़…अभी भी जिन्दगी तलाश रहे हैं। आस पास के लोगों ने बताया कि घायल दोनों आम के पेड़ों ने यहां रहने वालों की बहुत सेवा की। मौत से जंग कर रहे घायल दोनों आम के पेड़ आज भी मदद की उम्मीद में अपनी हरियाली को बचाकर रखे हैं।
जिन्दा हो सकते हैं पेंड़
कुछ पर्यावरण प्रेमियों ने बताया कि घायल दोनों आम के पेड़ स्वस्थ्य हैं। यदि इनसे वर्तमान स्थिति में छेड़छाड़ नहीं किया तो पूरी तरह से स्वस्थ्य हो जाएंगे। लेकिन ऐसा संभव नहीं है। क्योंकि सड़क बनते समय पेड़ों को टुकड़ों में हटना ही होगा। प्रशासन चाहे तो पेड़ों को बचाया जा सकता है। जैसा की विदेशों में देखने को मिलता है। देश में भी यदा कदा..जिन्दा पेड़ों को दूसरे स्थान पर शिफ्ट किया गया है। निगम कार्रवाई के बाद जमीन पर घायल लेटे दोनों आम के पेंड़ आज भी जड़ से जुड़े हैं। प्रशासन चाहे तो दोनों पेड़ों को सुरक्षित जगह ज़ड़ समेत शिफ्ट किया जा सकता है। दोनों आम के पेंड़ फिर से फलदार हो जाएंगे। लोगों को ना केवल फल देंगे। बल्कि आने वाली पीढियों को अपनी गोद में ठण्डक भी देंगे।
हरियर योजना और आम का पेड़
बरसात खासकर सावन महीने की तासीर ही कुछ ऐसी है कि प्रकृति अपने एक एक अंग को आशीर्वाद देती है। सरकार इसी समय हरे भरे जंगलों को बचाने पौधरोपण अभियान चलाती है। इस समय जमीन नरम और ऊपजाऊ होती है। कहीं भी…कुछ भी लगा दिया..प्रकृति सबको पाल पोष लेती है। इसके बाद कुछ महीने तक लोगों को पौधों की सेवा करनी होती है। बाद में पेड़ पौधे लोगों की सेवा करने लगते हैं।
मिट्टी तेल हाकर गली में दोनों घायल पेड़ों को भी बचाया जा सकता है। निगम प्रशासन को ध्यान देने की जरूरत है। दोनों पेड़ पूरी तरह तैयार और घायल होने के बाद भी स्वस्थ्य हैं। दोनों पेड़ों को निगम प्रशासन स्कूलों के आसपास या फिर ऐसी जगह लगा दे..जहां इनकी सबसे ज्यादा जरूरत है…। इससे बड़ा पर्यावरण बचाने का अभियान नहीं हो सकता है। इस अभियान को पीढियों तक याद रखा जाएगा। लोगों तक पर्यावरण संरक्षण के प्रति अच्छा संदेश भी जाएगा। काश प्रशासन ऐसा कुछ करे….।
यद्पि पेड़ों में सोचने समझने की क्षमता नहीं होती…बावजूद इसके क्यों लगता है कि कुछ ऐसी ही सोच इन दोनों घायल आम पेड़ों की भी होगी…तभी तो मेरे होढ़ों से बरबस ही फिल्म अग्निपथ का गाना फूट पड़ा है कि…अभी मुझमें कहीं बाकी…थोड़ी सी है जिन्दगी...।