चंदखुरी-बैतलपुर में गाँधी यात्रा के “निशान’’

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mg_file(रुद्र अवस्थी )“कुष्ठ रोगियों के अस्पताल का उद्घाटन मैं नहीं करूंगा…।यह काम किसी और से करा लीजिए…।लेकिन यह अस्पताल जिस दिन बंद करना होगा,उस दिन मुझे बुलाइएगा…।मैं जरूर आउंगा…। मैं चाहता हूं कुष्ठ रोग पूरी तरह से खत्म हो जाए।इसके रोगी ही न रहे और ऐसे अस्पताल की जरूरत ही न पड़े…।“ये बातें राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने  उस समय कहीं थीं। जब एक कुष्ठ रोग अस्पताल के उद्घाटन की पेशकश उनके सामने की गई थी। लेकिन गाँधी जी आए।24 नवंबर 1933 की तारीख आज भी तवारीख में दर्ज है।जब महात्मा गाँधी चंदखुरी–बैतलपुर के कुष्ठरोग अस्पताल में पहुंचे थे। उस दिन वे दोपहर दो बजकर चालीस मिनट से शाम पाँच बजे तक यानी कुल दो घंटा बीस मिनट तक इस अस्पताल में गुजारे  उस दौरान गाँधी जी ने मरीजों के साथ भोजन किया और बातचीत भी की। उस दौरे में महात्मा गाँधी रायपुर से भाटापारा होते हुए बिलासपुर आए थे और बिलासपुर आते समय चंदखुरी में रुके थे। फिर बिलासपुर की ओर रवाना हो गए थे।गाँधीजी खुली मोटर में आए थे और उनका दर्शन करने सड़क के दोनों ओर लोगों की भीड़ लग गई थी।

                                                        road_viewन्यायधानी और राजधानी को जोड़ने वाले हाइवे से गुजरने वालों को भले ही इस बात का अहसास हो या न हो। लेकिन मेनरोड से लगकर बने चंदखुरी- बैतलपुर के ‘’द लेप्रसी मिशन हॉस्पीटल” का इतिहास इतना गौरवशाली रहा है और समर्पण से भरा है कि यहां महात्मा गाँधी के चरण पड़े..।कुष्ठरोगियों की सेवा को अपने धर्म- कर्म का एक हिस्सा मानने वाले बापू ने कुष्ठरोगियों के इस अस्पताल को भी प्रेरणा दी। और सूत्र वाक्य दे गए कि “ मैं चाहता हूं कुष्ठरोग पूरी तरह से खतम हो जाए।इसके रोगी ही न रहे और ऐसे अस्पताल की जरूरत ही न पड़े….।“ चंदखुरी – बैतलपुर में द लेप्रसी मिशन के इस अस्पताल के सामने खड़े होकर अगर देखें तो 24 नवंबर 1933 के उस ऐतिहासिक दिन की कोई निशानी नजर नहीं आएगी।

                                                           front_hospital_fileमहात्मा गाँधी के दौरे की निशानी के रूप में कोई वीडियो-आडियो – फोटो भी वहां मौजूद नहीं है। लेकिन अस्पताल ने कुष्ठरोगियों के लिए जो किया है उसमें गाँधी जी के कहे शब्दों की प्रेरणा ( समर्पण भाव से अनुकरण ) – एक निशानी के रूप में जरूर दिख जाएगी। अस्पताल की इमारत में यह बात साफ नजर आती है कि कुष्ट रोग को ज़ड़-मूल से खतम करने के लिए यहां के लोगों ने वह सब कुछ किया , जो वे कर सकते थे। तभी तो किसी जमाने में जिस अस्पताल में कुष्ठरोग के दो हजार मरीजों को रखकर सेवा की जाती थी।वहां अब कुष्ठरोग के महज पाँच मरीज ही रहकर अपना इलाज करा रहे हैं। आस-पास इलाके में जन जागरण औऱ लोगों के बीच पहुंचकर कुष्ठरोग को पूरी तरह से खतम करने की तरफ मिशन का सफर लगातार जारी है।

                                                         IMG_4004बिलासपुर से करीब चालीस किलोमीटर दूर रायपुर रोड पर बसे चंदखुरी – बैतलपुर के जिस अस्पताल का जिक्र हो रहा है, उसका सफर आज से करीब एक सौ बीस साल पहले 1897 में शुरू हुआ था। सफर के शुरूआत की दास्तां भी दिलचस्प बताई जाती है। हुआ यह कि उस समय अमरीकी मिशन के लोग विश्रामपुर( नांदघाट) के आस-पास पहुंचे थे।उस दौरान यह इलाका भयंकर ,सूखे की चपेट में था। मिशनरी के लोगों ने जहां-तहां तंबू लगाकर सूखे की चपेट में आए लोगों की सेवा शुरू कर दी। चंदखुरी में भी ऐसे ही तंबू लगे हुए थे। हालात सामान्य होने पर मिशन के लोग वहां से लौटने लगे। मगर पादरी के. नोटरोट को अपने चंदखुरी कैम्प में ही रुकना पड़ा।चूंकि उनके कैम्प में सात ऐसे लोग छूट गए थे, जो कुष्ठरोग से पीड़ित थे। और जिन्हे बाकी लोगों ने अपने साथ ले जाने से मना कर दिया था।

                                                         IMG_4005बताते हैं पादरी के. नोटरोट ने उन सात मरीजों की सेवा के लिए वहीं पर कुष्ठ आश्रम बना लिया।सात झोपड़ियों में कुष्ठरोगियों की सेवा होने लगी। और उनका काम धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। आस-पास के लोग भी इस पुण्य यात्रा में उनके साथ हो लिए। जिससे जो हो  सका, उसने मदद की। महंत गिरी जी ने अपनी जमीन भी इस काम के लिए दे दी। एकदम शुरूआती दौर में इलाज का इंतजाम न होने की वजह से कुष्ठरोगियों की केवल सेवा ही होती थी।लेकिन  बाद में मिशन संस्थाओँ की मदद से अस्पताल शुरू किया जा सका।पहले “ मिशन टू लेपर “और फिर “ द लेप्रसी मिशन ईस्ट इंडिया “ ने आगे आकर इसकी मदद की। जानकारी के मुताबिक इस संस्था ने प. बंगाल के पुरुलिया में पहला कुष्ठरोग अस्पताल खोला था। उसने ही चंदखुरी में पूरी सुविधाओँ के साथ”लेप्रसी सेंटर” शुरू किया।चांपा और शांतिपुर ( धमतरी) में भी लेप्रसी मिशन के कुष्ठ रोग अस्पताल बनाए गए। लेकिन चंदखुरी का अस्पताल अविभाजित मध्यप्रदेश का सबसे पहला अस्पताल है।जहां महात्मा गाँधी और विनोवा भावे भी पहुंच चुके हैं।

                                                  IMG_4002चंदखुरी के इस अस्पताल नें समय-समय पर कई उतार-चढ़ाव देखे हैं।लेकिन यहां की आबोहवा की ही खासियत है कि यहां काम करने वालों की सेवा भावना में कभी कमी नहीं आई। कभी डॉक्टर नहीं थे तो अस्पताल के ट्रेण्ड स्टाफ ने मल्टी ड्रग्स थेरेपी ( एमडीटी) के जरिए मरीजों का इलाज जारी रखा।और सेंटर बंद नहीं होने दिया।कभी दो हजार मरीजों की सेवा करते हुए चंदखुरी सेंटर ने आदर्श ग्राम के रूप में भी अपनी पहचान बनाई। तब वहां सब मिलकर धान, गेहूँ, आलू-प्याज, हल्दी-मिर्च की खेती करते थे। पैदावार का उपयोग मरीजों के लिए होता था । डेयरी, हेचरी, पोल्ट्री फार्म भी थे। डेयरी में कभी इतना दूध पैदा होता था कि मरीजों के उपयोग के बाद बच जाए तो आस-पास गांवों में बांट दिया जाता था।सरकार से किसी तरह की मदद लिए बिना भी इस अस्पताल में जांच-पड़ताल और इलाज की सारी सुविधाएँ रहीं हैं।बताते हैं माइक्रोस्कोप इस अस्पताल में सबसे पहले आया।यहां बहुत पहले ही फिजियोथेरेपी सेंटर बना लिया गया था।चालमोंगरा तैल के इंजेक्शन भी यहां की फार्मेसी में तैयार किए जाते थे।कुष्ठ के मरीजों के लिए माइक्रो सेलुलर रबर ( एमसीआर) की चप्पलें भी यहां बनाई जाती हैं।

                                                         IMG_0952लेप्रसी मिशन ने इस अस्पताल को एक बड़ी इमारत बनाकर दी है।जिसका उद्घाटन पाँच अप्रैल 1995 को हुआ। अस्पताल के सुपरिटेंडेंट डा. मनतोष एल्काना बताते हैं कि यह अस्पताल बरसों से आस-पास इलाके के लोगों की अन्य बीमारियों के इलाज के लिए अपनी सेवाएँ दे रहा है। बिलासपुर शहर के साथ ही बेमेतरा, दुर्ग बलौदाबाजार जिले के लोग भी इलाज के लिए पहुंचते हैं।अब यह रिसर्च सेंटर की तरह काम कर रहा है।और रोजाना औसतन सौ से अधिक मरीज ओ.पी.डी में आते हैं।चंदखुरी – बैतलपुर के इस अस्पताल के साथ राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की यादें आज भी जुड़ी हुई हैं।और अस्पताल के चार्ट में  कुष्ठरोग के मरीजों की घटती संख्या देखकर यह भी लगता है कि कुष्ठरोग के पूरी तरह से खात्मे को लेकर बापू के सूत्र- वाक्य को भी यहां के लोगों ने नहीं भुलाया दै।गाँधी जी के दौरे की यही सबसे बड़ी निशानी इस अस्पताल के परिसर में आज भी नजर आती है।

अभी बहुत करना बाकी है !!
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चंदखुरी अस्पताल के सुपरिंटेडेंट डा. मनतोष एल्काना कहते हैं कि आंकड़ों के हिसाब से 2006 में कुष्ठरोग पर नियंत्रण पा लिया गया था।चूंकि मानकों के मुताबिक दस हजार की आबादी में दो से कम मरीज मिलने पर कुष्ठ रोग पर नियंत्रण मान लिया जाता है। लेकिन पिछले अप्रैल से दिसंबर के बीच  छत्तीसगढ़ में दस  हजार से अधिक कुष्ठ के मरीज खोज लिए जाने की जानकारी सामने आई हैं।ऐसी स्थिति में डी. आर. बढ़ सकता है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि कुष्ठरोग का बैक्टीरिया बहुत धीमे बढ़ता है। इसमें दो से पाँच साल तक लग जाते हैं। सामाजिक मान्यताओं की वजह से भी लोग इसे सामने नहीं आने देते। डा.एल्काना ने कहा कि जानकारी मिलने पर यह रोग जड़ से खत्म हो सकता है। इस लिहाज से जनजागरण की तरफ बहुत कुछ करने की जरूरत है और यह संस्था इस दिशा में लगातार काम कर रही है।

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